राजा परीक्षित यह लीला सुनते-सुनते मृत्यु की विभीषिका और मोक्ष की अभीप्सा से मुक्त हो गये। उन्होंने अपने हृदय की लालसा प्रकट की- ‘यह सुख-सौभाग्य जो देवकी-वसुदेव के लिए भी अलभ्य है, इन्हें कैसे मिला ? मुझे कैसे मिलेगा ?’ शुकदेव मुनि मुस्कराये- ‘बस, इतने में ही आश्चर्यचकित हो गये ? यशोदा माता ने इस शिशु-ब्रह्म को गाय बांधने की रस्सी से ऊखल में बाँध दिया था। इतने भक्तवत्सल, भक्तों के इतने अपने। वस्तुतः प्रेम भक्त के हृदय में नहीं होता, वह ईश्वरके हृदय में होता है। ईश्वर जब भक्त के परवश होकर विवशता की माधुरी का आस्वादन करता है तो उसे आत्मसुख से भी कुछ अधिक अनुभूति होती है। जहाँ विवशता में भी मिठास का अनुभव हो वहाँ प्रेमरस छलकता है। ईश्वर का यह बन्धन भक्त-वात्सल्य का अनुपम उदाहरण है।’
इसकी उपलब्धि कैसे होती है ? जो साधन से मिलता है वह सीमित पारिश्रमिक होता है। जो स्वामी की कृपा से मिलता है वह कब मिले; कब न मिले, यह निश्चित नहीं रहता। तब भगवद्रस का आस्वादन कैसे हो ? न साधन, न कृपा। एक तीसरा मार्ग है। वह है महापुरुष का प्रसाद। यह ठीक है कि ईश्वर के अधीन है सबकुछ, परन्तु वह ईश्वर प्रेम के अधीन है। प्रेम का धनी है। महापुरुष और प्रेम का प्रेप्सु है ईश्वर। महापुरुष भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हृदय में प्रेमरस का संचार करके उसके द्वारा ईश्वर की रस-पिपासा को तृप्त करते हैं। अतएव महापुरुष जब ईश्वर से कह देते हैं कि तुम इस भक्त के साथ ऐसी लीला करो, ईश्वर को वैसा ही करना पड़ता है और इस विवशता में ईश्वर का प्रेम उच्छलित होने लगता है। महापुरुष के प्रसाद से यह रस केवल भक्त को ही नहीं, अभक्त को भी मिल सकता है। उदाहरणार्थ, कुबेर के उद्दण्ड एवं जड़भावापन्न यमलार्जुन।
(क्रमशः )