परम प्रेमास्पद
सप्रेम नारायणस्मरण
जो स्वप्न का द्रष्टा आत्मा है समग्र स्वप्न ही उसका शरीर है। वह भी सप्ताङ्ग है। स्वप्न में भी जो सूर्य, चन्द्रमा, आकाश आदि हैं, वे स्वप्नद्रष्टा के शरीर ही हैं। देश, काल, वस्तुएँ सब दृष्टि में कल्पित आकृतियाँ हैं। स्वप्न में मैं कुम्भ मेला देखने गया। प्रयाग की विशाल भूमि दृश्य है। वहाँ दिन-रात काल भी दृश्य है। सूर्य-चन्द्रमा भी दृश्य है। देश-काल और वस्तु का इतना लम्बा-चौड़ा विस्तार,उसमें जो स्नानार्थी यात्री हैं, सब स्वप्न पुरुष हैं। उन्हीं में एक मैं भी धक्का खा रहा हूँ, स्नान कर रहा हूँ। मैं- सहित सब यात्री स्वप्न पुरुष हैं मैं तो वह हूँ जो यह स्वप्न देख रहा है। स्वप्न के पूर्वोक्त सातों पदार्थ स्वप्न देखनेवाले के मन के ही रूप हैं। वहाँ दीखने वाला कोई भी पूर्व-जन्म का पापी या पुण्यात्मा जीव नहीं है। स्वप्न में जो जीव दीखते हैं, उनका पूर्व जन्म या उत्तर जन्म नहीं होता। वे तो उसी समय दीखते हैं। वहाँ के पति-पत्नी पहले के ब्याहे हुए नहीं हैं। वहाँ के पिता-पुत्र की उम्र छोटी-बड़ी नहीं है। उन स्नान करने वालों को स्वर्ग भी नहीं मिलेगा। वह सब स्वप्न द्रष्टा की दृष्टि है। जीवाभास, द्रव्याभास, देशाभास और कालाभास चमक रहे हैं। वहाँ कोई वस्तु है तो स्वप्न देखने वाला। वह एक है, उसमें अनेकता नहीं है। जरा दृश्य से अलग करके उसके स्वरुप को समझो। स्वप्न दृश्य का निर्माता,स्वप्नपुरुषो का स्वामी, स्वप्न के बदलने और मिटने का साक्षी, कोटि-कोटि स्वप्नों में एक है। परमात्मा से अलग-अलग होने पर उसका कोई स्वरुप सिद्ध नहीं हो सकता। परमात्मा से एक होना ही उसका सत्-चित् आनन्दरूप है। यदि उसकी दृष्टि का विपरिलोप हो जाय तो विपरिलोप को कौन देखेगा ?
जो है, हो रहा है, दीख रहा है, बदल रहा है, मर रहा है- बस, यही सहज समाधि है।
शेष भगवत्कृपा
