प्रश्न- अनादिकाल से इस संसार को सँवारने सुधारने का प्रयास चल रहा है। यह कितना सुधर जायेगा, तब तुम इसे पसन्द करोगे ?
उत्तर- संसार का स्वभाव ही सड़ना है, बिगड़ना है। इसे राम, कृष्ण, शङ्कर, रामानुज, बुद्ध, महावीर, गाँधी- सबने सुधारने का प्रयत्न किया; परन्तु यह अपनी गति से बहता जा रहा है। किसी के रोके न रुका, किसी के सँवारे न सँवरा। योगी अरविन्द के अथक प्रयत्न के बाद भी धरती पर स्वर्ग नहीं उतरा। इसलिए कोई भी मुमुक्षु इसकी दिव्यता पर विश्वास नहीं कर सकता। वह तो दृश्य से मुक्त होकर अपने द्रष्टा स्वरुप में, बन्धन से छूट कर अपने मुक्त स्वरुप में स्थित होने के लिए ज्ञान सम्पादन करेगा। सुधारने की चेष्टा सब अपनी-अपनी वासना के अनुसार करते हैं। काम पूरा नहीं होता, समय पूरा होता है। परमात्मा उसको मिलता है जो इसकी ओर से आँख बंद करके उसको पाने के लिए चल पड़ता है। चिन्मात्र ब्रह्म में गोलोक भी स्फुरण है और धरती भी। स्फुरणमात्र में बनाने-बिगाड़ने की क्या आवश्यकता ?