सब आत्मा है- क्रोध किस पर ?
क्या स्थाणु में प्रतीयमान चोर पर भी लाठी-प्रहार ?
सब भगवान् या उनकी लीला है। प्रत्येक घटना ही प्रेमपूर्ण है।
सब प्रकृति का खेल है। इसमें अच्छा-बुरा क्या ?
अपने स्वभाव से विवश लोगों की चेष्टा पर ध्यान ही क्या ?
हमारा अंतःकरण इन विचारों को आत्मसात् कर चुका है। अब उसमें क्रोध असम्भव है।
मैं जीवन भर अब कभी क्रोध नहीं करूँगा – ऐसा दृढ़ निश्चय है।
अनुकूलता-प्रतिकूलता के भाव अज्ञानमूलक हैं- यह क्रोध की नींव है।
जो मेरे मन और शरीर के प्रतिकूल क्रिया करता है, वह मुझे उनसे ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। जहाँ कोई निशाना लगायेगा, मैं उससे ऊपर हूँ।
क्या यह घटना इतनी महत्त्वपूर्ण है कि मैं अपने चित्त का प्रसाद खो दूँ ?
मुझे कोई कामना नहीं है, फिर किस कामना की पूर्ति में बाधा होने पर क्रोध करूँ ?