विचारणीय बिन्दु

    सेठ जी बहुत क्रुद्ध हुए नौकर के अपराध पर।  उसे नौकरी से अलग करने लगे। मैंने उनसे कहा- ‘उसे सेवा से अलग करो या जुर्माना करो, वह तो बाद में दुःखी होगा; आपने तो क्रोध की आग से अपना सुख पहले ही फूँक दिया। दण्ड देने का, निकालने का मज़ा तो तब है जब आपका सुख यथापूर्व बना रहे। 

************************

    दुःख कहाँ है ? अपनी नासमझी में। तुम जैसी स्थिति में इस संसार में आये थे, उस स्थिति के लिए सदा तैयार रहो तो कोई दुःख नहीं- ‘यथा जातरूपधरः’। कुछ भी चला जाय, कोई भी बिछुड़ जाय- जरा भी दुःख नहीं। बेईमानी से पैसा कमाया, बड़ी ख़ुशी।  पैसा चला गया तो रोने लगे। चौपाटी पर चाट खायी, जीभ की खाज शान्त की, बड़े खुश हुए। और, पेट में दर्द हुआ तो रोने लगे। बेवक़ूफ़, रोना था तो पहली स्थिति में रोता। 

************************

    दुःख केवल उसका ही स्थिर रहता है, जो दुनिया में तो फेरफार करना चाहता है; परन्तु अपने मन को थोड़ा भी इधर-उधर सरकाना स्वीकार नहीं करता। 

new sg

 

 

 

प्रेरक प्रसङ्ग

     एक बार महाराजश्री के सामने किसी ने नास्तिकों की निन्दा की। उन्होंने बीच में ही किन्तु बड़े प्रेम से कहा- ‘भैया, नास्तिक भी भगवान् के वैसे ही हितैषी हैं, जैसे किसी बड़े आदमी का सेवक अपने मालिक का। इसे यों समझना चाहिए कि जैसे मालिक को विश्राम करते देखकर सेवक आगन्तुक से कह देता है कि मालिक घर में नहीं है, वैसे नास्तिक भी- ‘भगवान् नहीं हैं’ यह कह कर उनके नित्य-निकुञ्ज-विहार में बाधा नहीं पड़ने देता। और, फिर नास्तिक भी तो भगवान् की ही सृष्टि में हैं। भला गर्भस्थ शिशु की किसी भी क्रिया से माँ नाराज़ होती है ? भगवान् भी किसी नास्तिक से नाराज़ नहीं होते।’

*****************************

    एक बार कोई साधु जनकपुर से वृन्दावन आए। श्रीमहाराजश्री ने उनके वहाँ के समाचार पूछे। साधु ने कहा-  ‘है तो सब ठीक, पर वहाँ के साधुओं में कथा-सत्सङ्ग प्रचलित नहीं है। सब मन्दिरों के अपने खेत हैं और सब साधु हल चलाते हैं। श्रीमहाराजश्री यह सुनकर बोले- ‘अरे महात्मा, श्रीजनक जी महाराज को हल चलाने से ही जानकी जी की प्राप्ति हुई थी न, इसीलिए वे लोग भी अपनी साधना ‘हल चलाने में ही मानते हैं।’

    किसी का भी दोष देखना असल में आपके स्वभाव में ही नहीं था।   

new sg

‘व्यवहार की शिक्षा’

    दोषों तथा दुःख का अत्यन्ताभाव केवल ब्रह्मज्ञान से होता है; परन्तु व्यवहार में सुखी होने के लिए किसी प्रकार का आवेश कभी नहीं होना चाहिये – न काम का, न क्रोध का, न लोभ का। पैसे की आमदनी और खर्च का उचित प्रबन्ध करना चाहिये; परन्तु उसमें महत्त्वबुद्धि तथा संग्रह का रस नहीं आना चाहिए। धन उद्योग व दान से बढ़ता है,परन्तु धन-प्राप्ति में असफल होने पर खर्च घटाना चाहिए, धन-प्राप्ति के लिए निन्दनीय कार्य नहीं करने चाहिए। माता-पिता, भाई-बहन व पत्नी-बच्चों से प्रेम का व्यवहार रखें, छोटी-छोटी बातों पर लड़ें नहीं। कुछ बातें मान कर व कुछ मनवाकर मेल से रहना चाहिए, जिद्द करना अल्प-बुद्धि का लक्षण है। अपने शरीर एवं बुद्धि से सबकी सेवा करते रहो, परन्तु मन में उसका कोई संस्कार या स्मृति न बने ऐसी चेष्टा भरसक करनी चाहिए। संसार को हमारा धन व तन चाहिए, मन नहीं। मन के भूखे अमना भगवान् हैं, उनको ही मन देना चाहिए। संसार के काम कभी समाप्त नहीं होते, इसलिए कालयापन करना चाहिए। इसका मन्त्र है, प्रत्येक अवस्था और परिस्थिति से तुरन्त अपना हाथ बचा कर निकाल ले। ऐसा न हो कि हम कहीं फँसे रह जाएँ। हमको किसी से प्रेम हो तो कर लें और अपने स्वेच्छा से छोड़ दें, परन्तु यह भ्रान्ति कभी न रखें कि कोई अन्य व्यक्ति हमसे प्रेम करता है। दुःख व बन्धन को किसी हाल में स्वीकृति नहीं दें। किसी के प्रेमाग्रह से ज्यादा या प्रतिकूल भोजन कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि अन्नब्रह्म से पेटब्रह्म अधिक महत्त्वपूर्ण है। अपने वैराग्य के अभिमान के कारण किसी से लड़ना नहीं चाहिए। अपने नियमों के पालन में यथासम्भव दृढ़ रहो, परन्तु नियम का अभिमान नहीं हो। बड़ा नियम होता है, नियम को धारण करने वाला नहीं। स्वास्थ्य की रक्षा करना आवश्यक है। निरन्तर भजन करने के नाम पर स्वास्थ्य खराब कर लेना मूर्खता है। ऐसा मनुष्य पूर्णता का अधिकारी नहीं है। जीवन सरल और स्निग्ध होना चाहिए। 

new sg

सत्सङ्ग-चर्चा

    एक दिन किसी स्त्री ने महाराजश्री से प्रार्थना कर कहा – ‘आशीर्वाद दीजिये कि भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी दृढ़ भक्ति हो।’ श्रीमहाराजश्री ने कहा- ‘बस ! तुम इसी तरह, जड़-चेतन जो भी तुम्हारे सामने आए, उसे प्रणाम कर श्रीकृष्ण-भक्ति की याचना करती रहो, तुम्हें शीघ्र ही उसकी प्राप्ति हो जायेगी। इस लालसा का दृढ़ होना ही तो भक्ति है।’

***************************

    किसी भक्त ने महाराजश्री से प्रश्न किया- ‘अनन्य भक्त कौन ?’

    श्री महाराजश्री ने उत्तर दिया- ‘जो आठों प्रहर अन्तर्मुख रहता हो।’ इस पर श्रीसाईंसाहब, जो वहाँ बैठे थे, बोले कि ऐसा भजन तो आप ही करते हैं।’ इस पर श्रीमहाराजश्री बोले- ‘मैं भजन नहीं करता, बल्कि भगवान् ही मेरा भजन करते हैं। उनका अनुग्रह देखकर ही मेरा हृदय आनन्द से गद्-गद रहता है। बात असल में यह है कि जीव में तो उनके भजन करने की शक्ति ही नहीं है। जो कुछ होता है, उनकी दया से ही होता है।’

****************************

    एक बार यह प्रसङ्ग चल रहा था कि भगवान् सर्वत्र हैं और सबमें हैं। एक शिष्य ने पूछा, ‘महाराजश्री,आप उसे कैसे देखते हैं।’

    श्री महाराजश्री तुरंत बोले- जैसे तुम्हें देख रहे हैं।’   

new sg  

‘यह देखो कि आपका दिल कैसा है।’

    प्रश्न यह आया कि जो हमारे धर्म,कर्म हैं उनके बारे में क्या करना चाहिए ? तो यह बात बतायी कि आप कर्म मत देखो कि कैसा है, और, धर्म भी मत देखो कि कैसा है ! यह देखो कि आपका दिल कैसा है !! कर्म में न अच्छाई होती है और न बुराई होती है। 

‘प्रसज्यवित्तः हरणं न कल्कः। 

    कभी जबरदस्ती किसी से पैसा ले  लिया जाए तो पाप नहीं लगता ! पर किसका पैसा लें ? यदि पति अपनी पत्नी का पैसा ले ले जबरदस्ती, और पत्नी अपने पति के जेब में से निकाल ले, नारायण वह पाप नहीं है। चोरी नहीं है। तो वह क्या है? बोले भाई, वह तो प्रेम है।  क्योंकि, दिल में प्रेम है,  यह अपना-पन है। 

    भाई मेरे, यदि अपना मन बुरा है, तब तो पाप है और मन बुरा नहीं है तो पाप नहीं है।  इसलिए, पहले अपने दिल को देखो !तुम्हारे मन में किसी वस्तु के प्रति राग है ? किसी की मोहब्बत में पड़कर काम कर रहे हो क्या? तुम्हारे मन में किसी से नफ़रत है ? नारायण, जिससे नफ़रत होती है, उसका अच्छा काम भी बुरा लगता है और जिससे मोहब्बत होती है, उसका बुरा काम भी अच्छा लगता है। तो तुम काम मत देखो। यह देखो कि तुम्हारे दिल में राग है कि द्वेष, मोहब्बत है कि नफ़रत ?

    यदि राग है अपने हृदय में, तो उसको शुद्ध करने के लिए सत्कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। और, यदि वैराग्य है, तो तत्त्वज्ञानी के पास जाकर तत्त्व की जिज्ञासा करनी चाहिए। और, न पूरा राग है, न पूरा वैराग्य है, तब क्या करना चाहिए ? तब भगवान् से प्रेम करना चाहिए। क्योंकि, भगवान् की भक्ति करने में राग-वैराग्य दोनों की संगति लग जाती है। तो विरक्तों के लिए तत्त्वज्ञान है, अनुरागियों के लिए कर्मानुष्ठान है और जो बीच में हैं, उनके लिए भगवान् की भक्ति है।   

new sg