सेठ जी बहुत क्रुद्ध हुए नौकर के अपराध पर। उसे नौकरी से अलग करने लगे। मैंने उनसे कहा- ‘उसे सेवा से अलग करो या जुर्माना करो, वह तो बाद में दुःखी होगा; आपने तो क्रोध की आग से अपना सुख पहले ही फूँक दिया। दण्ड देने का, निकालने का मज़ा तो तब है जब आपका सुख यथापूर्व बना रहे।
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दुःख कहाँ है ? अपनी नासमझी में। तुम जैसी स्थिति में इस संसार में आये थे, उस स्थिति के लिए सदा तैयार रहो तो कोई दुःख नहीं- ‘यथा जातरूपधरः’। कुछ भी चला जाय, कोई भी बिछुड़ जाय- जरा भी दुःख नहीं। बेईमानी से पैसा कमाया, बड़ी ख़ुशी। पैसा चला गया तो रोने लगे। चौपाटी पर चाट खायी, जीभ की खाज शान्त की, बड़े खुश हुए। और, पेट में दर्द हुआ तो रोने लगे। बेवक़ूफ़, रोना था तो पहली स्थिति में रोता।
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दुःख केवल उसका ही स्थिर रहता है, जो दुनिया में तो फेरफार करना चाहता है; परन्तु अपने मन को थोड़ा भी इधर-उधर सरकाना स्वीकार नहीं करता।