आह ! अपने व्यापक बाँसुरीनाद से त्रिलोकी को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं, बिना अधिकारी का विचार किये सबका एक स्वर से आवाहन कर रहे हैं, आकाश, वायु, अग्नि, समुद्र कल-कलनिनादिनी नदियों, पृथिवी, अंतरिक्ष और दिशा-विदिशाओं को प्रतिध्वनि द्वारा कण-कण अणु-अणु को निमंत्रण दे रहे हैं, अपनी लम्बी-लम्बी भुजाओं को फैलाकर छाती से लगाने के लिए आतुरता प्रकट कर रहे हैं, व्याकुल हो रहे हैं, मचल रहे हैं, अनन्त चुम्बन देने के लिए अपना देव-दुर्लभ अधरामृत पिलाने के लिए अधर-सिंधु से हमें सराबोर, आप्लावित करने के लिए ललक रहे हैं। वे पाने प्रेम दयावत्सलता और करुणा की शान्ति में किरणों से सारे जगत् को अभिषिक्त कर रहे हैं। उन्हीं करुणा-वरुणालय प्रभु की प्रेममयी सुधा-धारा से हम सभी आप्लावित हो रहे हैं, उसी में उन्मज्जन-निमज्जन-अवगाहन-स्नान सब कुछ कर रहे हैं। हमारा सारे जगत् का कण-कण उन्हीं में स्थित है, स्वास-प्रश्वास, स्पंदन-स्पंदन और जीवन-मरण सब उन्हीं के अन्दर, उन्हीं की प्रेममयी प्रेरणा से चल रहा है,यह सब उनका प्रेममय, आकर्षणमय और चुम्बनमय स्वरुप ही है। उन प्रेम, आनन्द और शान्ति की अनन्त मूर्ति में वियोगविकर्षण तथा क्लेश की सत्ता ही नहीं है उनसे इनका स्पर्श ही नहीं है और उनकी अनन्तता के कारण ये हैं ही नहीं; ये मिथ्या हैं। अज्ञान जन्य हैं,कल्पनामात्र] प्रतीतिमात्र हैं। अब प्रश्न यह होता है – उनकी अपार करुणा है और उनकी सत्ता ही नहीं, तो हम इस चक्कर में क्यों पड़े हैं ?हमें नाना प्रकार के क्लेशों की प्रत्यक्ष अनुभूति क्यों होती है ? हमें साक्षात् ही भीषणता के दर्शन क्यों होते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर सुनकर आश्चर्य न करें। यही सच्ची बात है। हम इन्हें ही-चाहते हैं अपनाये हुए हैं, इन्हीं के साथ सन गये हैं और एक हो गये हैं, हम स्वेच्छा से जान-बूझकर क्लेश, भीषणता और भव-चक्र को ही वरण किये हुए हैं। हमने स्वयं चाह कर आनन्द-प्रेमस्वरूप प्रभु को इन रूपों में बना लिया है। हम क्या चाहते हैं ? पुत्र, कलत्र, वित्त, लोक, परलोक और मान-प्रतिष्ठा तथा इनके द्वारा शरीर को क्षणिक सुख, बस यही तो ! यह मिलते हैं। फल वही होता है, जो होना चाहिए। इन चंचल क्षणिक और अनित्य, पदार्थों से नित्य सुख की आशा कैसे की जा सकती है ? जो स्वयं ही विनष्ट-प्राय हैं, भला कैसे अविनाशी सुख का दर्शन करा सकते हैं ?
तनिक ध्यान दें ! जिस शरीर के लिए ही हमारी प्रत्येक चेष्टाएँ होती हैं, जिसको आराम पहुँचाना ही हमारे समस्त कार्यों का लक्ष्य रहता है, जो सबसे अधिक हमारी ममता का भाजन है, यहाँ तक कि जिससे हम अहंता भी करते हैं, वह शरीर ही कितने समय तक साथ देगा और किन पदार्थों के संयोग से बना हुआ है। इसके सम्बन्धियों की तो चर्चा ही छोड़ दीजिये। यह महा अपवित्र विष्ठा, मूत्र, माँस, पीव, रक्त, अस्थि, चर्म आदि ऐसे पदार्थों की पोटली है – कि विचार मात्र से ही इससे घृणा होनी चाहिए। इससे प्रेम होने का अभिप्राय है कि हम नरक से ही प्रेम करते हैं, इसीसे आसक्ति, ममता और तादात्म्य होने के कारण ही हम काम, क्रोध आदि अंतःकरणस्थ शत्रुओं तथा निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि कारण शत्रुओं के अधीन अथच उनके द्वारा अहर्निश विताडित हो रहे हैं। उन्हीं के सेवन में सारा समय व्यतीत कर रहे हैं।
(क्रमशः)
