माँ के हृदय में वात्सल्य का उदय हुआ श्रीकृष्ण को भयभीत देखकर। जैसे गैया-मैया जब अपने सद्योजात शिशु को मूत्रादि से लथपथ एवं जरायुपरिवेष्टित देखती है तो वह उसे चाटने लगती है, वत्सला हो जाती है, उसका हृदय वात्सल्य-स्नेह से भरपूर होकर छलकने लगता है, वैसे ही यशोदा माता का हृदय वात्सल्य से उल्लसित हो गया। उसने अपने हाथ से बछड़े को डराने वाली छड़ी फेंक दी। ‘ठीक ही है, तभी तक हृदय में जड़ता और हाथ में छड़ी रहती है जबतक चेतन की प्राप्ति न हो- पवित्र चेतनाका जागरण न हो। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ना और अपने हाथ में जड़ छड़ी को रखना एक साथ शक्य नहीं है।
तावज्जडाश्रयो युक्तो न यावच्चेतना गम: ।
युक्तं श्रीशङ्करं धृत्वा सा जहौ यष्टिकां जडाम्।।
देखिए, श्रीकृष्ण का हृदय। ‘मुझे अपने हृदय की गोद में लेकर स्नेह-मोद देकर यदि कोई पुनः क्षुद्र कर्म में लग जाये तो अवश्य ही उसकी अर्थ-क्षति और मेरी दूर-स्थिति हो जायगी। परन्तु यदि वह फिर मेरे पास लौट आवे तो मैं उसे सुलभ हो जाता हूँ।
मदीयं संतोषं सुफलदमसम्पाद्य मनुजो
यदि क्षुद्रे किञ्चित्फलिनि दिनकर्मण्यभिरतः।
भवित्री तस्यार्थक्षतिरपि च दूरस्थितिरहं
पुनर्मद्गामी चेत् प्रतिपदमहं तस्य सुकमः।।
‘यद्यपि मैं बुद्धि के पेट में अँटने वाला नहीं हूँ तथापि जो दूसरे काम छोड़कर मेरा अनुगत होता है, मेरे पीछे-पीछे दौड़ता है उसे मैं सुलभ हो जाता हूँ।’
बुध्द्यग्राह्योऽप्यहमिह सुलभस्तस्यास्मि यस्तु मदनुगतः।
उज्झितकर्मेत्याशयमबोधयन् मातृहस्तगो हि हरिः।।
यशोदा माता ने विचार किया – ‘गर्गाचार्य ने अनामी को नाम के घेरे में ले लिया। श्रुति के अनुसार नाम और दाम (रस्सी) एक ही हैं। अतः अब इसको बांध लेना – दामोदर बना देना सुगम है।
गर्गोक्तनामबद्धेऽस्मिन् सुकरं दामबन्धनम्।
इत्यैषीत् सा नामदामपर्यायैकार्थदर्शिनी।।
(क्रमशः )