उलूखल बन्धन लीला-19

     माँ के हृदय में वात्सल्य का उदय हुआ श्रीकृष्ण को भयभीत देखकर। जैसे गैया-मैया जब अपने सद्योजात शिशु को मूत्रादि से लथपथ एवं जरायुपरिवेष्टित देखती है तो वह उसे चाटने लगती है, वत्सला हो जाती है, उसका हृदय वात्सल्य-स्नेह से भरपूर होकर छलकने लगता है, वैसे ही यशोदा माता का हृदय वात्सल्य से उल्लसित हो गया। उसने अपने हाथ से बछड़े को डराने वाली छड़ी फेंक दी। ‘ठीक ही है, तभी तक हृदय में जड़ता और हाथ में छड़ी रहती है जबतक चेतन की प्राप्ति न हो- पवित्र चेतनाका जागरण न हो। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ना और अपने हाथ में जड़ छड़ी को रखना एक साथ शक्य नहीं है।

तावज्जडाश्रयो युक्तो न यावच्चेतना गम: ।

     युक्तं श्रीशङ्करं धृत्वा सा जहौ यष्टिकां जडाम्।।

     देखिए, श्रीकृष्ण का हृदय। ‘मुझे अपने हृदय की गोद में लेकर स्नेह-मोद देकर यदि कोई पुनः क्षुद्र कर्म में लग जाये तो अवश्य ही उसकी अर्थ-क्षति और मेरी दूर-स्थिति हो जायगी। परन्तु यदि वह फिर  मेरे पास लौट आवे तो मैं उसे सुलभ हो जाता हूँ।

मदीयं संतोषं सुफलदमसम्पाद्य मनुजो

यदि क्षुद्रे किञ्चित्फलिनि दिनकर्मण्यभिरतः।

भवित्री तस्यार्थक्षतिरपि च दूरस्थितिरहं

पुनर्मद्गामी चेत् प्रतिपदमहं तस्य सुकमः।। 

     ‘यद्यपि मैं बुद्धि के पेट में अँटने वाला नहीं हूँ तथापि जो दूसरे काम छोड़कर मेरा अनुगत होता है, मेरे पीछे-पीछे दौड़ता है उसे मैं सुलभ हो जाता हूँ।’

बुध्द्यग्राह्योऽप्यहमिह सुलभस्तस्यास्मि यस्तु मदनुगतः।

उज्झितकर्मेत्याशयमबोधयन् मातृहस्तगो हि हरिः।।

     यशोदा माता ने विचार किया – ‘गर्गाचार्य ने अनामी को नाम के घेरे में ले लिया। श्रुति के अनुसार नाम और दाम  (रस्सी) एक ही हैं। अतः अब इसको बांध लेना – दामोदर बना देना सुगम है।

गर्गोक्तनामबद्धेऽस्मिन् सुकरं दामबन्धनम्।

इत्यैषीत् सा नामदामपर्यायैकार्थदर्शिनी।।   

 

(क्रमशः )

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उलूखल बन्धन लीला-18

     श्री हरिसूरि ने भक्तिरसायनम् में, माता अपने बल का प्रयोग कर रही है स्नेह की अधिकता से, तो मैं भी अपना बल, स्नेह की अधिकता दिखाऊँ, स्नेह पर स्नेह ही सफल होता है, रोदन ही शिशु का बल है, ऐसी उत्प्रेक्षा की है। मेरे नेत्र में स्थित हैं सूर्य और चन्द्रमा। वे हमारे वंश के आदि भी हैं। उनके साथ कज्जल-कलंक-कालिमा का सम्बन्ध उचित नहीं है अतएव स्वच्छ करते हैं। उन्हें उकसाते हैं- ‘तुम साक्षी हो। किसी कर्म के कर्ता नहीं हो। तुम लोग मेरी माँ को यह बात समझा दो।’

      श्रीभक्तिरसायनम् में श्री हरिसूरि ने इस प्रसंग में  एक बड़ा ही सुन्दर भाव प्रकट किया है- मनुष्य चाहे जितना साधन-सम्पन्न हो, ओजस्वी हो परन्तु अपनी मलिनता मिटाने के लिए उसे दूसरे की आवश्यकता होती है। प्रकाशमान सूर्य और चन्द्रमा सहस्रकर हैं। साथ ही, भगवान् के नेत्र के रूप में अथवा नेता के रूप में स्थित हैं तथापि भगवद्-हस्तावलम्ब के बिना उनके कलंक-कज्जल का मार्जन नहीं हुआ।

नानासाधनशालिनोsपि पुरुषस्यौजस्विनः स्वात्मनो

माकिन्यापहृताववश्य-मपरापेक्षेति युक्तं यतः।

भास्वच्चन्द्रमसो:सहस्रकरयोरप्यत्र नेत्रात्मनो-

रासीदञ्जनमार्जनं न भगवद्धस्तावलम्बं  विना।।

श्रीकृष्ण ने विचार किया कि संतों ने मेरी नाम-महिमा का संगीत गाया है कि ‘श्रीकृष्ण’ नाम षड्-रिपुओं का नाशक है। क्रोध का अवरोधक मैं सम्मुख खड़ा हूँ और माँ के हृदय में रोष का संचार हो रहा है। यह मेरी नाम-कीर्ति के विपरीत है।’ इसीसे  श्री कृष्ण के नेत्र भय-विह्वल हो गये।

तवामिधानं  षडरिप्रञ्जकं  भुवीति  सद्भिर्यदहं  प्रकीर्तित: ।

मई स्थिते द्वेषिणि रोषसंभव: कथं जनन्यामिति तादृशेक्षण:।।

(क्रमशः)

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उलूखल बन्धन लीला-17

    माँ ने पकड़ लिया। जगत् का स्वामी जिसे कभी कोई अपराध छू नहीं सकता, आज अपराधी के कटघरे में खड़ा है। फफक-फफक कर रो रहा है। एक हाथ से बार-बार नेत्रों के कज्जलमिश्र अश्रु पोंछ रहा है। भय-विह्वल नेत्र ऊर्ध्वमुख हो गये हैं। हाथ पकड़कर माँ ने धमकाया। यह सब भगवान् के रूप हैं – अपराधी, रोनेवाला, भय-विह्वल। जो उन्हें पहचानते हैं वे सब रूपों में पहचानते हैं। भगवत्स्पर्शी अपराध, रोदन और भय भी धन्य है। माँ ने पीटा नहीं, धमकाया- ‘मनचले ! क्रोधी ! लोभी ! चंचल ! चोर !’ नये नाम रख दिये। ‘ऐसा बाँध कर रख दूँगी कि बाहर जा न सकोगे, माखन खा न सकोगे, सखाओं से मिल न सकोगे।’ कृष्ण ने कहा – ‘मैं तुम्हारा लगाया हुआ काजल भी पोंछ दूँगा। मैं तुम्हारे हाथ से आँसू नहीं पोंछवाऊँगा, स्वयं पोंछ लूँगा। वे अपने नेत्र स्वयं स्वच्छ करते हैं और उनकी क्रिया से यशोदा के नेत्र तथा उनमें भगवत्प्रतिबिम्ब स्वच्छ होता है। यही भक्ति की विशेषता है। रजोगुण-तमोगुण नष्ट हो गये।

     माता ने छड़ी फेंक दी। बालक को भयभीत करना उचित नहीं। उसके प्रति भीषणता उचित नहीं है, वात्सल्य ही योग्य है। बाँध के रखने का निश्चय किया। कृष्ण ने कहा – ‘मुझे ताड़ना मत दो।’  माँ ने कहा – ‘यदि ताड़ना से डरते हो तो आज दादी-सास के समय का दधि-भाण्ड क्यों फोड़ दिया ?’ कृष्ण- ‘अच्छा, अब ऐसा कभी नहीं करूँगा।’ माँ – ‘ले, छड़ी फेंक दी।’ देखिए, श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती का श्लोक – 

ताडने यदि तवातिशया भीस्तत् किमद्यदधिभाण्डम भांक्षी:।

मातरेवमथ   नैव  करिष्ये  पातय   स्वकरतो  बत  यष्टिम्।। 

(क्रमशः)

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उलूखल बन्धन लीला-16

    श्रीकृष्णनिष्ठ स्नेह और मातृनिष्ठ स्नेह में स्पर्धा हो गयी। माँ ने मन में विचार किया कि मैं अपने शिशु की  सब बुराइयाँ सह सकती हूँ  परन्तु खलसंगति नहीं, इसलिए  गाय हाँकनेवाली छड़ी  लेकर दौड़ी। श्रीकृष्ण ने कहा – जिसके मन में क्रोध है उसकी बुद्धि चाहे कितनी अच्छी हो, मैं उससे मिल नहीं सकता। तमोगुणी-रजोगुणी से दूर रहना चाहिए। इसलिए मैं भागता हूँ।

अकृत्यमपि मे सर्वं सह्यमस्य परन्तु न।

उलूखलाङ्घ्रिभजनमित्यागात् सा सयष्टिका।।    

शिक्ष्यद्रोषं मनो यावत् तावदीशः पराङ्मुखः।

                  सूक्ष्मवेत्राश्रितस्यापि भवेदित्यभवत् स्फुटम्।।  (भ.रसा.)

     श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे दौड़ने में भी माता की विशेष शोभा है। विजयध्वजतीर्थ ने ‘अन्वञ्चमाना’ पद का विवरण करते हुए कहा है कि यशोदा के दौड़ने में एक पूजनीय गति है। हँसी के समान चल रही है। ‘अञ्चु’ धातु का अर्थ गति और पूजा है। भगवान् के पीछे दौड़ने मात्र से ही केश के बंधन टूट गये; प्रसूना = हिंसा के भाव च्युत हो गये। अंतःकरण की शुद्धि हो गयी। संत की अनुगति से कल्याण होता है, भगवन्त की अनुगति से  तो कहना ही क्या ? अनुगति का फल है श्री कृष्ण का स्पर्श।   

(क्रमशः)

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उलूखल बन्धन लीला-15

     श्रीहरिसूरि  कहते हैं कि यह उलूखल नहीं, खल है। माता के द्वारा पुत्र की उपेक्षा होने पर खल-संगति स्वाभाविक है, खल भी अभिमानी के साथ टकराता है और विनयी के साथ मेलजोल कर लेता है। मानो, इसी दृष्टि से श्रीकृष्ण ऊखल के निचले भाग पर जो कि उलटा होने के कारण ऊपर हो गया था, बैठ गये। खलवशीकार के लिए उसका चरण-स्पर्श विहित है। और भी, ‘खल-संग प्राप्त होने पर भी उदार पुरुष के सौजन्य, शील, स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता। ऊखल पर बैठे हुए श्री कृष्ण भी उदारता पूर्वक दान कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने स्पंदमान रोष का स्पर्श किया था। उसके दोष का मोष (नाश) करने के लिए दान कर रहे हैं। दान ही दोष-शोषक है। 

न हीयते वदान्यस्य सच्छीलं खलसंगतः। 

उलूखल कृतावासोप्यौदापन्निच्युतोच्युतः।। 

दानमेव जने यावद्रोषदोषाघमोषकम्। 

भवतीत्यच्युतो युक्तं तद्दानं तत्कृतेकरोत् ।।       

   श्रीकृष्ण के मन में है कि मैं वानर को भी नवनीतामृत  सुलभ करने के लिए पृथिवीपर आया हूँ। भजन करो और अमृत लो। ये वानर हमारे रामावतार के सखा, सहायक एवं सेवक हैं। अमृत का वितरण हो रहा है। 

     हाथ में गाय हाँकने की छड़ी लेकर मैया दौड़ी। श्री कृष्ण ने भलीभाँति उसका भाव भाँप कर भीत के समान भागना प्रारम्भ किया। योगियों का तपःपूत अतएव प्रवेशक्षम मन भी जिनको प्राप्त नहीं कर सकता, पकड़ने के लिए माँ उन्हें खदेड़ रही हैं। 

(क्रमशः)

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