उन दिनों श्री ध्रुव जी को भगवत्प्राप्ति हुई थी। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इकट्ठे हुए। परस्पर विचार करने लगे कि हम लोगों ने कठिन-कठिन तप, व्रत, आराधन किये, भगवत्प्राप्ति नहीं हुई। यह नन्हा-सा शिशु। छः मास इसकी तपस्या। भगवान् कैसे मिल गये और हमें भगवत्प्राप्ति में देर क्यों ?
निश्चय हुआ की चलकर ध्रुव से ही पूछा जाये। उनके पूछने पर ध्रुव कोई उत्तर न दे सके; क्योंकि उन्हें अपने में किसी विशेषता का कोई पता नहीं था। ध्रुव के चुप रहने पर महात्माओं ने कहा- ‘अच्छा, जब भगवान् मिलें,तब उनसे पूछकर बतलाना।’एक बार भगवान् ध्रुव को मिले तो ध्रुव के प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा – ‘अभी चलो, घूम आयें, फिर प्रश्नोत्तर। ‘
दोनों निकल पड़े। सामने विशाल जलराशि। खिले कमल। सारस, हंस तैर रहे। छोटी-सी सुन्दर नाव पर दोनों बैठे। भगवान् ने पतवार अपने हाथ में ली। नाव जल पर तैरने लगी। ध्रुव अपलक नेत्रों से अनूप रूपराशि का पान करने लगे। थोड़ी दूरी पर एक श्वेत पर्वत मिला। ध्रुव ने पूछा – ‘प्रभो, यह क्या है ?’ भगवान् ने कहा – ‘यह तुम्हारे अनादिकाल से अबतक के उन जन्मों की हड्डियों का पर्वत है जिनमें तुमने मेरी भक्ति नहीं की थी।’
आगे बढ़ने पर पहले से भी विशाल गगनचुम्बी पर्वत देखकर ध्रुव ने जिज्ञासा की। भगवान् ने कहा – ‘ध्रुव ! यह तुम्हारे उन जन्मों की हड्डियों का पर्वत है, पहले-से लाखों गुना बड़ा, जिनमें तुमने मेरी भक्ति की है। और जो आज मैं तुम्हें मिला हूँ, तुम्हारी नाव खे रहा हूँ- यह केवल एक जन्म की साधना नहीं है। तुमने मेरे लिए कोटि-कोटि जन्म खपा दिये।’
ध्रुव ने चर्चा की, महात्माओं के प्रश्न का उत्तर मिल गया।