अब किस नियम, व्रत, दान, आदान, स्नान कर्म को धर्म कहा जाये – यह बात वासनानुसार नहीं, शासनानुसार ही निश्चित करनी पड़ेगी। उस शासन का जो शाश्वत, सार्वभौम, मौलिकरूप है उसे ‘शास्त्र’ कहते हैं। वह देश काल वस्तु, क्रिया, पुरुष, अंतःकरण आदि की उत्पत्तिके पूर्व से ही बीज रूप में रहता है और रूप-व्याकृति के साथ ही उसकी नाम-व्याकृति भी होती है। जो ईश्वर सृष्टि का निर्माता है पूर्व कल्पनानुसार, वही शास्त्र का भी निर्माता है। दोनों का ही प्रकाशक-मात्र है। करण-निबंधन-कर्तृत्व उसमें नहीं है। क्या आप किसी ऐसे शास्त्र को मान्यता देते हैं ? उसके विज्ञान को समझने का प्रयत्न करते हैं ? यदि नहीं, तो आप अपने को तत्त्वज्ञान और धर्म के मार्ग से कहीं विमुख तो नहीं कर रहे हैं ? ज्ञानात्मा के शुद्ध स्वरुप को संकेतित करने वाली यह शास्त्र-प्रक्रिया आपकी धर्म-प्रेरणा का स्रोत क्यों नहीं बनती ?जहाँ वासनानुसारिणी बुद्धि आपको बहिर्मुख बनाती है वहाँ शासनानुसारिणी बुद्धि अंतर्मुख करेगी। धर्मानुष्ठान करना तो अलग, इस धर्मानुशासन को हृदयंगम करने का प्रयत्न भी आपको धर्मात्मा होने की प्रेरणा देगा।