खाया भोजन कैसे पचता है ? उससे बना रस शरीर कैसे चूस लेता है ? श्वास कैसे चलती है? यह शरीर ही अद्भुत यंत्र है। हमारे खाये अन्न से केवल रक्त, मांस या शक्ति ही नहीं बनती, उससे मन भी बनता है, बुद्धि बनती है। अन्न का बुद्धि बन जाना क्या अपने-आप सम्भव है ? विज्ञान अभी तक रक्त भी नहीं बना सका है। वस्तुतः विज्ञान केवल आकृति बनाता है, धातु नहीं। आकाश, वायु आदि विज्ञान नहीं बनाता। जो यह सब बनाता है, उस रचनाकार का चिन्तन करो।
हम प्रतिदिन सो जाते हैं तो जगाता कौन है ? नींद कैसे आती है ? कौन निद्रा भेजता है ? संसार में किसी वस्तु को देखो – मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता- सबमें अद्भुत कौशल है। आपके पॉँच पुत्र हों और उनके पॉँच-पॉँच सन्तान हों। यह क्रम सौ पीढ़ी चले तो आपका ही नाम ब्रह्मा हो जायेगा। सृष्टि में यह जो अरबों प्राणी हैं , सृष्टि में वृद्धि का यह बीज किसने डाला ? आम कितनी पीढ़ी से चला आ रहा है। एक फूल सड़ता है तो कितने कीड़े बन जाते हैं। इस प्रकार सृष्टि में सर्वत्र भगवान् का हाथ देखो।
ऐसा करना सरल न लगे तो दूसरे क्रम से चिन्तन का स्वभाव बनाओ। मान लो कि आप हाथ में एक केला लेते हो। आपको केले को देखकर यह कथा स्मरण आनी चाहिए – श्रीकृष्णचन्द्र जब पाण्डवों के संधिदूत बनकर हस्तिनापुर गये तो दुर्योधन ने उनके स्वागत के लिए महल सजाया था। बड़ी तैयारी की थी। श्रीकृष्ण ने दो टूक कह दिया-
सम्प्रीति भोज्यान्यन्नान्यापद्भोज्यानि वा पुनः।
न च त्वं प्रीयसे राजन् चैवापद्गता वयम् ।।
‘दुर्योधन जी ! प्रेम से कोई खिलाये तो खा लें या हमें भोजन न मिलता हो – हम भूखे हों तो जो दे, उसका खा लें। किन्तु तुम तो प्रेम से खिलाते नहीं; घूस दे रहे हो और हम भूखे नहीं हैं, अतः तुम्हारे घर खाने नहीं जायेंगे।’
दुर्योधन के आमंत्रण देने पर भी नहीं गये उसके घर और विदुर जी के घर स्वयं पहुँच गये। विदुर-पत्नी को घर में कुछ नहीं मिला तो केला खिलाने लगीं। इतना प्रेम आवेश कि केले का गूदा फेंकती जायें और छिलका देती जायें। श्रीकृष्ण वह केले का छिलका खाते थे। आपके हाथ में जो केला है यह भी तो उसी केले के वंश में है- यह स्मरण करें।
(क्रमशः)