ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (4)

     खाया भोजन कैसे पचता है ? उससे बना रस शरीर कैसे चूस लेता है ? श्वास कैसे चलती है? यह शरीर ही अद्भुत यंत्र है। हमारे खाये अन्न से केवल रक्त, मांस या शक्ति ही नहीं बनती, उससे मन भी बनता है, बुद्धि बनती है। अन्न का बुद्धि बन जाना क्या अपने-आप सम्भव है ? विज्ञान अभी तक रक्त भी नहीं बना सका है। वस्तुतः विज्ञान केवल आकृति बनाता है, धातु नहीं। आकाश, वायु आदि विज्ञान नहीं बनाता। जो यह सब बनाता है, उस रचनाकार का चिन्तन करो।

     हम प्रतिदिन सो जाते हैं तो जगाता कौन है ? नींद कैसे आती है ? कौन निद्रा भेजता है ? संसार में किसी वस्तु को देखो – मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता- सबमें अद्भुत कौशल है। आपके पॉँच पुत्र हों और उनके पॉँच-पॉँच सन्तान हों। यह क्रम सौ पीढ़ी चले तो आपका ही नाम ब्रह्मा हो जायेगा। सृष्टि में यह जो अरबों प्राणी हैं , सृष्टि में वृद्धि का यह बीज किसने डाला ? आम कितनी पीढ़ी से चला आ रहा है। एक फूल सड़ता है तो कितने कीड़े बन जाते हैं। इस प्रकार सृष्टि में सर्वत्र भगवान् का हाथ देखो।

     ऐसा करना सरल न लगे तो दूसरे क्रम से चिन्तन का स्वभाव बनाओ। मान लो कि आप हाथ में एक केला लेते हो। आपको केले को देखकर यह कथा स्मरण आनी चाहिए – श्रीकृष्णचन्द्र जब पाण्डवों के संधिदूत बनकर हस्तिनापुर गये तो दुर्योधन ने उनके स्वागत के लिए महल सजाया था। बड़ी तैयारी की थी। श्रीकृष्ण ने दो टूक कह दिया-

सम्प्रीति भोज्यान्यन्नान्यापद्भोज्यानि वा पुनः।

न  च  त्वं  प्रीयसे  राजन्  चैवापद्गता  वयम् ।।

     ‘दुर्योधन जी ! प्रेम से कोई खिलाये तो खा लें या हमें भोजन न मिलता हो – हम भूखे हों तो जो दे, उसका खा लें। किन्तु तुम तो प्रेम से खिलाते नहीं; घूस दे रहे हो और हम भूखे नहीं  हैं, अतः तुम्हारे घर खाने नहीं जायेंगे।’

     दुर्योधन के आमंत्रण देने पर भी नहीं गये उसके घर  और विदुर जी के घर स्वयं पहुँच गये। विदुर-पत्नी को घर में कुछ नहीं मिला  तो केला खिलाने लगीं। इतना प्रेम आवेश कि केले का गूदा फेंकती जायें और छिलका देती जायें। श्रीकृष्ण वह केले का छिलका खाते थे। आपके हाथ में जो केला है यह भी तो उसी केले के वंश में है- यह स्मरण करें। 

                                                                                                                        (क्रमशः)

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ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (3)

       ‘मद्रचनानुचिन्तया’सृष्टि के रूप में यह परमात्मा का कौशल सामने है। एक-एक वस्तु में उनकी विलक्षण निपुणता है। आप नल के जल का टैक्स देते हो, पंखे के चलाने का टैक्स देते हो। किन्तु वर्षा के जल का टैक्स लगता है ? श्वास लेने की वायु पर कोई  कर है ?

     ‘यावज्जीवं त्रयो वन्द्या वेदान्तो गुरुरीश्वरः।’ वेदान्ती को भी यावज्जीवन वेदान्त, गुरु तथा  ईश्वर की सेवा करनी चाहिए; क्योंकि ईश्वर ने अतःकरण शुद्ध किया, गुरु ने हमारे जीवन का निर्माण किया, वेदान्त शास्त्र से ज्ञान प्राप्त हुआ। इनके प्रति कृतघ्न हो जाओगे तो ज्ञान प्रतिबद्ध हो जायेगा। अतः इनके प्रति कृतज्ञ बने रहना चाहिए।

     अन्न,वस्त्र, गौ आदि वस्तुओं के देने की क्रिया जब धर्म और वस्तु के संयोग से संपन्न होती है, तब उससे मन पवित्र होता है। जब किसी को कुछ देकर बदले में कुछ लाभ इसी लोक में चाहते हैं, तब धर्म विकृत हो जाता है। जैसे श्राद्ध में अपने रसोईये को खिलाकर उसे रुपया, धोती दें और उससे सेवा चाहें। वस्तु, क्रिया, विधि, सद्भाव तथा संकल्प के सम्बन्ध से धर्म होता है। मीठे शब्द का दान भी धर्म है। 

     परमात्मा तथा जगत् के तत्त्व का विधिवत् विचार करने से ज्ञान होता है। मनमाने ढंग से विचार करने से ज्ञान नहीं होता। योग में वस्तु की आवश्यकता नहीं, क्रिया की आवश्यकता नहीं, सङ्कल्प की आवश्यकता नहीं और विचार की भी आवश्यकता नहीं। बस मन को रोक दो। इन सबसे भक्ति विलक्षण है। इसमें न ब्रह्मविचार है, न मनोविरोध है, न वस्तु देना और न क्रिया करना। भक्ति प्रेमात्मिका वृत्ति है। भक्ति यह है कि एक-एक पदार्थ में, क्रिया में भगवान् का स्मरण हो। 

      एक महात्मा को किसी ने केला दिया। उन्होंने केले को छीला, बस वे तो केला खाना भूल ही गये। उनके नेत्रों से अश्रु-प्रवाह चलने लगा। वे केले को ही देखते रह गये। देने वाले से पूछा – ‘केले के भीतर इतना उत्तम हलवा किसने रखा? किसने छिलके से उसकी ऐसी रक्षा की कि मक्खी, मच्छर का मुँह वहाँ नहीं पहुँच सका? वह मुझसे बहुत प्रेम करता होगा ?’

‘आराममस्य पश्यन्ति न तं  पश्यति कश्चन’ –श्रुति 

     उसके सृष्टिरूप  बगीचे को लोग देखते हैं; किन्तु उसे कोई नहीं देखता। ‘रचनानुपपत्तेश्च ना नुमानम्’(ब्रह्मसूत्र) कभी भी अज्ञातरूप से अपने आप इतनी उपयुक्त ,समझदारी से बनी रचना नहीं हो सकती। लेकिन अनुमान से जगत्कर्ता नहीं जाना जाता।  अनजान रूप से प्रकृति बदलती रहती है और स्वयं सब बन जाता है- ऐसा नहीं हो सकता। 

                                                                                                                             (क्रमशः)

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ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (2)

     पृथिवी देखकर आपको स्मरण आता है कि इसे वराह भगवान् ने स्थापित किया है ? इसी धरती पर श्री रघुनाथ ‘धूसर धूरि भरे तन आये’ और यही पृथिवी है जिसपर गोपाल घुटनों चलता था। समुद्र देखकर आपको शेषशायी का स्मरण आता है ? यह भगवान् की ससुराल है। भगवान् इसमें शेषशय्या पर सोते हैं। सूर्य-मण्डल में भगवान् हैं। चन्द्र-मण्डल में भगवान् हैं। वायु विराट् पुरुष का श्वास है। शरीर में वायु लगने पर कभी स्मरण आता है कि हमारे इतने समीप भगवान् का मुख है ? ये बातें मन में आने लगे, तब समझो कि भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। सृष्टि के कर्ता कारीगर का हाथ सर्वत्र दीखना चाहिए। उसे देखने, उससे मिलने की उत्कण्ठा होनी चाहिए। 

हे देव हे दयित हे भुवनैकबन्धो। 

हे कृष्ण हे चपल हे करुणैकसिन्धो। 

हे नाथ हे रमण हे नयनाभिराम। 

हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।

     वह रसमयी, मधुमयी, लास्यमयी श्याममूर्ति हमारे नेत्रों के सम्मुख कब आयेगी ? जीवन में वह क्षण कब आयेगा ? हे कृष्ण ! हे चपल ! हे करुणासिन्धु ! हे स्वामी ! हे प्रियतम ! हे त्रिभुवनबन्धु ! हे परमसुन्दर ! कब तुम मेरे नेत्रों के सम्मुख आओगे !  

     यह उत्कण्ठा-प्यास जगे प्राणों में। आप विश्वास कीजिये कि ईश्वर है। सच्चा है और ईश्वर का दर्शन इन्ही नेत्रों से होता है। जितना सत्य यह जगत् है, उससे अधिक सत्य परमात्मा है। 

     डाक्टर कहते हैं- ‘हम हृदय बदल सकते हैं।’ जब आप हृदय बदलते हो तो क्या उस व्यक्ति की स्मृतियाँ और भावनाएँ बदल जाती हैं ? ऐसा तो नहीं है। यह तो एक मांस-खण्ड है, जिसे आप बदलते हो। हृदय हम कहते हैं भावनाओं के आधार को। वह बदला नहीं जाता। 

                                                                                                                               (क्रमशः )

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ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (1)

(कपिलोपदेश के अन्तर्गत एक श्लोक के एक अंश की व्याख्या )

भक्त्या पुमाञ्जातविराग ऐन्द्रियाद्

दृष्टश्रुतान्मद्रचनानुचिन्तया। 

चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योगयुक्तो 

                यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गैः।। (३/२५/२६)

      “भक्ति होने पर  पुरुष को देखे-सुने सब ऐन्द्रियक भोगों में वैराग्य हो जाता है। तब वह चित्त को एकाग्र करनेके प्रयत्न में लगता है और बराबर मेरी रचना के चिन्तन-जैसे सरल योगमार्गों से प्रयत्न करता है।” 

‘मद्रचनानुचिन्तया’– भगवान् की रचना- उनका शिल्पनैपुण्य देखो। सूर्य ऐसा दीपक है कि यदि वह केवल दो फुट पृथिवी के और समीप होता तो पृथिवी जल जाती। यदि चन्द्रमा दो फुट और पास होता तो समुद्रका  ज्वारपृथिवी को डुबा देता। कितना अद्भुत गणित है सृष्टिकर्ता का। 

आपके नेत्रों के सम्मुख सृष्टि है। इसकी अद्भुत रचना पर आपका ध्यान जाता है ? ऐसी कोई संसार की वस्तु है जो आपके प्रिय की बनायी न हो ?  

एक बार एक सज्जन अपनी पुत्री के साथ गुरुनानक के समीप गये ? गुरु साहब एकटक उस लड़की को देखने लगे  तो पिता से रहा नहीं गया। वह बोला- ‘आप इसमें क्या देखते हैं ?’

गुरु- ‘कर्ता की कारीगरी देखता हूँ।’

यह भक्त की दृष्टि है कि लड़की नहीं देखते, कर्ता की कारीगरी देखते हैं। 

‘मद्रचनानुचिन्तया’- मम रचनाया अनुचिन्ता यस्यां तादृश्या भक्त्या, मेरी रचना का अनुचिन्तन जिसमें है, उस भक्त की दृष्टि से सृष्टिको  देखो। 

एक महात्मा लखनऊ में रहते थे। उनके समीप एक सज्जन अपने बगीचे के फूलों का गुलदस्ता लेकर आये। वे महात्मा से यह पूछने आये थे कि- ‘घरद्वार सम्हालें या छोड़ दें।’ महात्मा देखने में तल्लीन हो गये। उन सज्जन ने थोड़ी देर प्रतीक्षा की। महात्मा को अपनी ओर ध्यान न देते देखकर बोले- ‘गुलदस्ता आप देख रहे हैं, यह बड़ी कृपा, किन्तु मुझे तो आप भूल ही गये।’

महात्मा – ‘फेंक दूँ इसे ?’

वे घबड़ाकर बोले – ‘नहीं-नहीं। बड़े प्रेम से मैंने इसे बनाया है।’

महात्मा – ‘तब इसी को देखूँ ?’

वे- ‘नहीं, मेरी ओर भी देखिये।’

महात्मा – ‘तुम्हारे प्रश्न का यही उत्तर है। यह संसार ईश्वर ने बड़े प्रेम से बनाया है। अतः इसकी ओर भी देखो और इसके बनानेवाले की ओर भी देखो।                                                        

   (क्रमशः )

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