भगवान् कल्पवृक्ष स्वरुप हैं और हम सब उन्हीं की छत्र-छाया में उन्हीं के करकमलों के नीचे अथवा उन्हीं की गोद में हैं। हम लोग जीवन में जैसी-जैसी अभिलाषा करते हैं, वह हमारे जीवन के साथ जोड़ दी जाती है और हमारे जीवन में जब उसका उपयोग ठीक प्रतीत होता है, तब भगवान् उसे पूर्ण कर दिया करते हैं। इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि जैसी इच्छा करने का निषेध है, हमारे जीवन में कहीं वैसी इच्छा न आ जाय। लोग स्वर्ग को बहुत महत्त्व देते हैं, परन्तु भगवद्-जन के सामने अथवा समत्व की तुलना में उसका कोई महत्त्व नहीं है। जब स्वर्ग के देवता और इंद्र के मन में भी मनुष्यों की अमरता से ईर्ष्या और जलन होने लगती है, तब एक बार बलात् हमारे मन में स्वर्ग की तुच्छता आ जाती है। कैसी विडंबना है कि स्वर्गीय देवताओं के मन में भी मनुष्यों के संहार की इच्छा जाग्रत् हो जाती है। इसलिए हमारे मन में स्वर्ग की इच्छा नहीं होनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि भगवान् की दयालुता भी अवर्णनीय है। जब वे देखते हैं कि जैसी इच्छा जीव में नहीं होनी चाहिए, वैसी इच्छा जीव कर रहा है, तब वे उसे ऐसे स्थान पर बैठा देते हैं कि उसकी इच्छा भी पूरी हो जाय और लोकहित में उसका सदुपयोग भी हो जाय।