अन्न आत्मा नहीं है। विष्ठा और भस्म भी आत्मा नहीं हैं। फिर दोनों के बीच की अवस्था देह और इन्द्रियाँ आत्मा कैसे हो सकती हैं ? जिसकी पूर्वावस्था आत्मा नहीं है और परावस्था आत्मा नहीं है, वह वस्तु मध्य में भी अविद्या से आत्मा मानी हुई है।
जैसे एक ही बीज पुआल, भूसी और चावल- तीन रूप धारण करता है, वैसे ही भोजन किया हुआ अन्न विष्ठा, मांस और बुद्धि का रूप ग्रहण करता है। यह सब जड़ के विकार हैं, आत्मा नहीं।
धर्म चरित्रशुद्धि के द्वारा अंतःकरण-शुद्धि का हेतु है, इसलिए वह तत्त्वज्ञान में परम्परा साधन है। शम-दमादि ज्ञान के कारण अर्थात् अंतःकरण के शोधक हैं, इसलिए बहिरंग साधन हैं। श्रवण-मननादि जीव-पदार्थ अर्थात् ईश्वर और जीव के स्वरुप के शोधक हैं, अतः अन्तरङ्ग साधन हैं। अविद्या की निवृत्ति केवल तत्त्वज्ञान से होती है, इसलिए मोक्ष का साक्षात् साधन तत्त्वज्ञान ही है। तत्त्वज्ञान से अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की निवृत्ति नहीं होती, बल्कि नित्य प्राप्त में अप्राप्ति का और नित्य निवृत्ति में अनिवृत्ति का जो भ्रम होता है उसकी निवृत्ति होती है। इसलिए मोक्ष अपने आत्मा का स्वरुप ही है। अर्थात् आत्मा नित्य, शुद्ध,बुद्ध,मुक्त ब्रह्म ही है।