श्री हनुमान् जी पशु रूप में क्यों ?
26 Mar 2018 Leave a comment
in 2017
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इन पाँच नियमों को धारण करने वाला मनुष्य ईश्वर को प्रिय होता है :-
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इन सात नियमों पर चलने से संसार का दुःख नहीं व्यापता और ईश्वर भी प्रसन्न होता है :-
18 Mar 2018 Leave a comment
in 2017
जितनी निष्ठा होती है,उनकी अपनी-अपनी एक प्रक्रिया होती है। उनमें साधन क्या होता है, स्थिति क्या होती है और फल क्या होता है – यह सब बिलकुल पक्का होता है। अब जिसके हृदय में ईश्वर की भक्ति है, उसका बल है ईश्वर का विश्वास। चाहे रोग आवे, चाहे शोक आवे, चाहे मोह आवे कि लोभ आवे, कि मृत्यु आवे, चाहे विरोध आवे- हर हालत में उसका विश्वास बना रहना चाहिए कि ईश्वर हमारी रक्षा करेगा। सम्पूर्ण विपत्तियों को सहन करने के लिए ईश्वर पर विश्वास आत्मबल देता है।
अब एक आदमी की अद्वैत-निष्ठा है। तो उसके जीवन में भी रोग आवेगा, शोक और मोह के अवसर आवेंगे। कभी पाँव फिसल भी जायेगा और कभी ठीक आगे भी बढ़ेगा, कभी मृत्यु आवेगी। ऐसे में उसका बल यह है कि मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ब्रह्म हूँ- इन परिस्थितियों से मेरा न तो कुछ बनता है और न बिगड़ता है। ये तो मृग-मरीचिका हैं, मायामात्र हैं, अपने स्वरुप में कुछ नहीं हैं। इस निष्ठा के बल के सिवाय यदि वह यह कहने लगे कि हे ईश्वर, हमको बचाओ। तो उसकी निष्ठा कच्ची है।
अब कोई मंत्र का जप करता है तो अपने मंत्र पर उसका विश्वास है कि मंत्र हमारी रक्षा करेगा। पर, कोई काम पड़ा, कोई रोग आया, कोई समस्या आयी अथवा मृत्यु का अवसर आया और वह अपना मंत्र छोड़कर भगा दूसरे मंत्र की शरण में, तो वह अपनी निष्ठा से च्युत हो गया। बल हमेशा अपनी निष्ठा का होना चाहिए।
अब एक योगी, जो समाधि लगाने का अभ्यास करता है और उसके जीवन में कोई रोग,मोह,शोक का प्रसङ्ग आता है तो वह यदि कहता है कि हे ईश्वर बचाओ अथवा आत्मा तो नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त है- उसकी निष्ठा पक्की नहीं। उसको तो तुरन्त अंतर्मुख हो जाना चाहिए। ऐसी शक्ति उसके अन्दर होनी चाहिए कि तुरन्त चित्त-वृत्ति का निरोध हो जाये। कहीं कुछ नहीं।
अब ज्ञानी-पुरुष के जीवन में जो कठिनाई आती है, उसको मंत्र जप करके पार नहीं करता, उसको वह देवता के बल पर पार नहीं करता, ईश्वर की प्रार्थना करके पार नहीं करता। वह जानता है कि अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में यह सब स्फुरणा-मात्र है। इनकी कोई कीमत ही नहीं है।
तो नारायण, तब तक अपनी निष्ठा को पक्की नहीं समझना, जब तक अपनी निष्ठा के अतिरिक्त और किसी का सहारा लेना पड़ता हो। अपने घर में जो बैठने का अभ्यास है, वह साधक की सिद्धि का लक्षण है और जो पराये घर में बैठ कर आँधी , तूफ़ान से बचते हैं, उनकी निष्ठा पक्की नहीं है। अपनी निष्ठा पक्की करनी चाहिए।
नव संवत्सर मंगलमय हो !
12 Mar 2018 Leave a comment
in 2017
भगवान् करुणा-वरुणालय हैं। वे अपने भक्त के अपराध को सम्भाल लेते हैं, भक्त की त्रुटि को अपनी त्रुटि समझते हैं।
भगवान् राम अयोध्या में विराज रहे थे। विभीषण लंका का शासन कर रहे थे। वे शिव भक्त थे। नित्य प्रातः लंका से पैदल चल कर श्रीरंगक्षेत्र आते और जम्बुकेश्वर महादेव का पूजन-अर्चन कर लौट जाते। यही उनका नित्यका क्रम था। एक दिन त्वरा में उनके पैर की ठोकर लग जाने से मार्ग में बैठा हुआ एक वृद्ध ब्राह्मण मर गया। नगर में कोलाहल मच गया। विभीषण पकड़ लिए गए। जंजीरों से बाँधकर उन्हें बंदीगृह में डाल दिया गया। अनेक प्रकार की यातनाएँ दी गयीं; किन्तु वे मरे नहीं। भगवान् की कृपा और वर उन्हें प्राप्त जो थे। लौटकर जब वे लंका नहीं पहुँचे, अनेक दिन बीत गए, सभी पुरवासियों को चिंता हुई। संवाद अयोध्या पहुँचा। भगवान् श्रीराम सुनकर उदास हो गये। शिवजी ने भी यह बात उन्हें बतलायी। भगवान् करुणा-वरुणालय हैं। अपने भक्त का संकट उनसे देखा न गया, स्वयं श्रीरंगक्षेत्र पहुँचे। ब्राह्मणों ने राक्षसराज को उनके सम्मुख उपस्थित किया और प्रार्थना की – ‘इसने ब्राह्मण की हत्या की है, हमारे मारने से यह मरा नहीं। आप चक्रवर्ती सम्राट् हैं, आप न्याय करें और इसे दंड दें।’
भगवान् ने कहा – ‘ब्राह्मणों, लोक में यही प्रसिद्ध है कि सेवक का अपराध स्वामी का ही होता है। इस विधान के अनुसार विभीषण के अपराध का दंड मुझे मिलना चाहिए, क्योंकि यह मेरा भक्त है। इसका अपराध मेरा अपराध है। मेरा मरना कहीं अच्छा है, मेरे भक्त का नहीं –
वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम् ।
राज्यमायुर्मया दत्तं तथैव स भविष्यति ।।
भक्तापराधे सर्वत्र स्वामिनां दण्ड इष्यते। ‘
भगवान् की करुणापूर्ण वाष्पगद्गद् वाणी सुनकर सभी सभासद विह्वल हो गए। ‘धन्य-धन्य’ ‘जय-जय’ के तुमुल घोष से आकाश गुंजरित हो उठा। विभीषण मुक्त कर दिए गए।
05 Mar 2018 Leave a comment
in 2017
ये वासनाएँ बड़ी प्रबल होती हैं और उनके रूप बड़े सूक्ष्म होते हैं। जन्म-जन्म के संस्कार होते हैं। जब मनुष्य ध्यान करने बैठता है, समाधि लगाने बैठता है, तब ये वासनाएँ ही ईश्वर का रूप धारण करके आती हैं, ईश्वर का सन्देश बनकर आती हैं और ईश्वर का ज्ञान बनकर आती हैं। अपनी वासनाएँ ही देवता बनकरके आती हैं, बड़े-बड़े महापुरुष का रूप धारण करके आती हैं और वे ऐसी-ऐसी बातें बताती हैं कि लोग उनके चक्कर में फँस जाते हैं। इसलिए, जो प्रेरणा वेदानुकूल नहीं है, वह तो वासनात्मक है।
जो प्रेरणा तत्त्वमस्यादि महावाक्य के साधन के रूप में नहीं है, वह वासनात्मक है। जिससे तत्-पद वाच्यार्थ में स्थिति, त्वं-पद वाच्यार्थ में स्थिति और दोनों के लक्ष्यार्थ का बोध हो करके अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती, वह वासनात्मक है। जिसमें योग नहीं, जिसमें उपासना नहीं,जिसमें तत्त्वज्ञान नहीं, जो अन्तर्मुखता की पराकाष्ठा पर पहुँचा करके वेद के परम तात्पर्य का ज्ञान कराने वाला नहीं है, उसको जो ईश्वर का सम्पर्क-सन्देश मिलता है, वह झूठा- काल्पनिक- वासनात्मक है। पचास-पचास वर्ष एकान्त में बैठने वाले, ध्यान लगाने वाले, समाधि लगाने वाले को जो ईश्वर का सम्पर्क- सन्देश प्राप्त होता है, वह झूठा-काल्पनिक-वासनात्मक हो सकता है।
नारायण, सम्पूर्ण वेदों का परम तात्पर्य ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान में है। इसलिए, ईश्वर का सच्चा सन्देश वह है, जहाँ परमात्मा से जुदा किसी भी वस्तु का प्रतिपादन नहीं होता है। वहाँ ईश्वर की दृष्टि है, ईश्वर का ज्ञान है, ईश्वर का अनुभव है।