प्रतीक के संबंध में कुछ बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं; पहला बोध्यप्रतीक, दूसरा उपास्य प्रतीक। जैसे छोटे-छोटे बच्चों को अज्ञात अक्षरों का ज्ञान करने के लिए शीशे की गोलियों का सहारा लेते हैं वैसे ही अक्षरतत्त्वका ज्ञान कराने के लिए मूर्तियों का प्रतीक ग्रहण करते हैं। गोलियाँ प्रतीक हैं उसी प्रकार कण्ठ,तालु आदि के आघात से उच्चार्यमान स्वर-वर्णों की प्रतीक लिपियाँ हैं। ये विभिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, नागरी,तमिल, अंग्रेजी आदि में लिपि अलग-अलग हैं परन्तु ‘अ’, ‘क’ आदि स्वर वर्ण में एक ही हैं। अक्षर अक्षरात्मा हैं, लिपियाँ उनके ज्ञान की प्रतीक;यही मूर्ति हैं। इसमें परम्परा की प्रधानता रहती है, नयी भी बनायी जा सकती हैं।
उपास्य प्रतीक हैं, जैसे शालग्रामशिला या शिवलिङ्ग। जगत् का कारण है निराकार ब्रह्म, उसके प्रतीक है नारायण, शिव, चतुर्भुज, श्याम-गौर। उनके बीजरूप की सूचना है शालग्राम या शिवलिङ्ग। उपादान तथा निमित्त की अभिन्नता से शालग्राम या शिव, इस प्रतीक को समझने के लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना आवश्यक है। ईसाई, मुसलमान या आर्यसमाजी ईश्वर की मूर्ति नहीं मान सकते क्योंकि वे ईश्वर को नितान्त निराकार मानते हैं। ईश्वर चेतन है, मूर्ति जड़ है, इसी सिद्धांत को स्वीकार करके आज के शिक्षित मूर्तिपूजा को प्रायः प्रतीकोपासना मानते हैं। इसके आधार पर ईश्वर का ज्ञान या ध्यान तो हो सकता है परन्तु वह ईश्वर नहीं है- ऐसी इन लोगों की मान्यता है।
भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि में भी जो लोग जड़, चेतन दो तत्त्व स्वीकार करते हैं वे जड़ प्रतीक में वेदमंत्रों के द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करके चैतन्य का आधान करते हैं। उसमें जिस महात्मा के लिए विशेष प्रकार से मूर्ति प्रकट हुई है, जिसकी अर्चा-पूजा सतत प्रवाहित रही है और जिसमें किसी विशेष प्रकार का चमत्कार देखा जाता है उसमें लोगों की श्रद्धा होती है। पुजारी का उत्तम होना भी मूर्तिपूजा में विशेषता को प्रकट करता है, अपनी श्रद्धा तो है ही।
परन्तु यह सब मूर्तिपूजा का सिद्धांत नहीं है, उसका मूल-दृष्टिकोण तो यह है कि स्वयं परब्रह्म-परमात्मा ही सम्पूर्ण विश्व के रूप में प्रकट है,वह निराकार-साकार चर-अचर जीव-जगत् सबके रूप में पहले से ही है। ऐसा कोई देश, काल या वस्तु नहीं है जो परमात्मा से अलग हो। कहीं भी, किसी भी रूप में परमात्मा की उपासना की जा सकती है। यह सब उसका प्रतीक नहीं है,वही है। जैसे गाय के किसी भी अंग का स्पर्श गाय का ही स्पर्श है, जैसे पिता की उंगली पकड़ कर चलना,पिता को ही पकड़ना है, इसी प्रकार परमात्मा के किसी रूप की पूजा उसी की पूजा है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य आत्मा सब उसी के स्वरुप हैं। जड़ कुछ नहीं है, सब भगवान् है। हमारी श्रद्धा भावना और भगवान् का अनुग्रह दोनों मिलकर चमत्कार की सृष्टि कर देते हैं। मूर्ति बोलती है, हँसती है, खाती है, उदास होती है, प्रसन्न होती है, उसमें विविध भाव प्रकट होते हैं क्योंकि वस्तुतः वह चेतन ही है, जड़ता तो उसमें मनुष्य की मूर्खता से आरोपित है। मूर्ति में व्यापक है परमात्मा- यह निराकार वाद है। प्रतिष्ठा है परमात्मा- यह धर्मवाद है। परमात्मा ही मूर्ति है यह भागवत-सिद्धांत है। प्रतीक में परमात्मा हो ऐसा नहीं, प्रतीक परमात्मा ही है। अतएव मीरा आदि भक्तों को मूर्ति में प्रत्यक्ष भगवान् का दर्शन होता है। भक्त की दृष्टि में यह भगवान् का अनुग्रह है, जिज्ञासु की दृष्टि में यह भक्त की श्रद्धा है, तत्त्वज्ञ की दृष्टि में यह आत्मस्वरूप ही है।
प्रत्यक्ष मूर्ति में परोक्ष परमेश्वर की बुद्धि होने से – प्रत्यक्ष भले ही कुछ भी क्यों न हो- भक्त की बुद्धि परमेश्वराकार हो जाती है। इससे परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। बुद्धि का आश्रय चेतन और बुद्धिस्थ आकार का आश्रय-चेतन जब एक हो जाता है तब मूर्ति चैतन्य होती है। गुरु’ मंत्र, भक्त और ईश्वर इन चारों की एकता ही मूर्ति-पूजा की चरम-परिणति है। निश्चय ही विषयवासना से संसार में भटकते हुए प्राणियों के लिए उद्धार का अनुपम साधन है मूर्ति-पूजा। यह यांत्रिक दृष्टिकोण से नहीं, अनुभव-दृष्टि से साक्षात्कार करने योग्य है।
शेष भगवत्कृपा !
