मैं,मैं,मैं
22 Apr 2019 Leave a comment
in 2017
मिट्टी ने अभिमान के साथ कहा-मैं भी कुछ हूँ। मनुष्य, पशु, पक्षी, घट,पट, मठ, फल, फूल, पल्लव- सब मैं ही तो हूँ।
काल ने रोक दिया- मैं तुम्हारा पिता, तुम मेरी पुत्री। मेरे जीवन के एक छोटे-से अंश में ही तो तुम्हारा सबकुछ होता है।
दिशा ने कहा- ठीक है, मैं तुम्हारी माँ हूँ। तुम प्रत्येक दशा में मेरे पेट में तो रहती हो।
मेरी लम्बाई और चौड़ाई के अंग में तुम्हारा जन्म-मरण- दोनों होता है।
मिट्टी सोचने लगी – ‘मैं क्या हूँ।’ कुछ पता न लगा। हारकर चुप बैठ गयी। चुप होते ही उसे आहट मिली कि मेरे पीछे खड़ा होकर मुझे कोई देख रहा है। वह चुप हो गयी और चुप चेतन से अपने को एक कर दिया। अब न काल की उम्र थी, न दिशा का पेट।
मिट्टी ने कहा – माँ-बाप झूठे हैं। मैं न होऊँ तो पिता की उम्र कहाँ और माता का पेट कहाँ ? असल में मैं उसी की हूँ जिसमें मैं समा गयी थी। वही मेरा सर्वस्व है – ये ‘माँ’, ‘बाप’, ‘मैं’ कुछ नहीं।
इतने में वेदान्त ने गंभीर ध्वनि से निर्घोष किया- अरी, तू उसकी नहीं, वही है। वह तेरा सर्वस्व नहीं, तू ही है। तेरा ‘मैं’ काल का ‘मैं’, दिशा का ‘मैं’ सब वही है। मैं,मैं, मैं= अद्वितीय चेतन।
भगवद्चिन्तन की महिमा
15 Apr 2019 Leave a comment
in 2017
आप देखिये कि आपकी मति अथवा बुद्धि किसका विचार करती है? किसको प्यार करती है? अरे इसको माँग रहा है खड़ा-खड़ा वह नन्दनन्दन श्यामसुन्दर मुरलीमनोहर और हाथ उठाकर कह रहा है कि ‘मय्यैव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ‘ । अपना मन मुझे दे दो, हमेशा केलिए मेरे पास रख दो। इसको दूसरी जग़ह मत रखो, क्योंकि मेरे अतिरिक्त और कोई वस्तु मन लगाने योग्य है नहीं। यदि तुम दूसरी चीज़ में मन लगाओगे तो समझ जाओ क्या होगा? यही होगा कि तुम्हारा मन तो बना रहेगा,लेकिन वह चीज़ नष्ट हो जायेगी।
तो भाई,भगवान् में अपना मन लगाओ! चूँकि वे अविनाशी हैं, हमेशा बने रहेंगे। यही नही , अपनी बुद्धि को प्रभु में निविष्ट कर दो। माने अपनी बुद्धि को उनमें ऐसा निविष्ट कर दो कि तुम्हारी बुद्धि और वे, वे और तुम्हारी बुद्धि – दोनों एक हो जायँ -प्रभु में और तुम्हारी बुद्धि में कोई फ़र्क ही न रहे। नारायण, असंदिग्ध सिद्धान्त है यह कि जब मन और बुद्धि तुमने डाल दी भगवान् में तब उपाधि नहीं रही और जब उपाधि नहीं रही तो परमात्मा और आत्मा में भेद करने वाला कौन रहा? इसमें संशय करने के लिए लेशमात्र भी नहीं है।
चाचा की चपत का चमत्कार
01 Apr 2019 Leave a comment
in 2017
महामहोपाध्याय श्रीशिवकुमार शास्त्री का जन्म काशी के निकट उन्दी ग्राम में हुआ था। बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु हो गयी। चाचा पालन-पोषण करने लगे।
चाचा ने बालक शिवकुमार को भैंस चराने के काम में लगा दिया। ग्यारह वर्ष की उम्र। चरवाहे के काम में उनका मन नहीं लगता था। कभी तलाब पर स्नान करके शिवजी की पूजा करते; कभी कोई पुस्तक मिल जाती तो पढ़ने का प्रयत्न करते। एक दिन पुस्तक पढ़ने में तन्मय बालक को चुपके से आकर चाचा ने एक चपत मारी और डाँटा –
‘चल, चल, भैंसों की देखभाल कर। मूर्ख ! तू काम-धन्धा छोड़ कर पतञ्जलि बनने चला है।’ कठोर चपत की चोट से बालक का हृदय ग्लानि और पीड़ा से भर गया। बिना किसी को बताये रातों-रात काशी पहुँच गया। विश्वास, लगन, तन्मयता, ईश्वरभक्ति बालक के रोम-रोम में भरी थी। बड़े ही कष्ट से अपना बाल्य जीवन व्यतीत किया। वेद, वेदाङ्ग, दर्शनों का इतना बड़ा विद्वान् उन दिनों विश्व में कोई दूसरा नहीं था। जितना वैदुष्य इन्होंने प्राप्त किया; वह अभूतपूर्व था। देश के बड़े-बड़े विद्वान्-मूर्धन्य इनके शिष्य हुए। ईश्वर कृपा और पौरुष के मेल से एक असहाय बालक कितनी उन्नति कर सकता है, इसका एक यह उदहारण है।
माता और चाचा के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी ये आजीवन कभी लौटकर अपने गाँव नहीं गए।