स्वयंप्रकाश सर्वाधिष्ठान आत्मस्वरूप ब्रह्म ही सम्पूर्ण नामरूपात्मक प्रपञ्च के रूप में प्रतिभात हो रहा है। वह स्वयं ही विषय और विषयी के द्विविध रूप में विवर्तमान होकर भी अपने अद्वितीय निर्विकार स्वरुप में ही प्रतिष्ठित है। इस अनिर्वचनीय विश्व में जो लौकिक, पारलौकिक अथवा अलौकिक दिव्य चमत्कार चमक रहे हैं इनसे उसकी एकरस अनुभवस्वरुप अद्वितीयता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। विश्व के एक-एक कण में विराजमान अगणित वैचित्र्य एवं परस्पर विलक्षणताएँ उसके निर्निमित्त भेदरहित अभ्यादि स्वातंत्र्य का ही उद्घोष करती हैं। निखिल वेद्य पदार्थ अपने परम स्वरूप की एकता, अधिष्ठानता एवं चिन्मात्रा से ही उद्भासित हैं। वह परम स्वरुप भी प्रत्यक् चैतन्य से भिन्न होने पर तो अनुभाव्य, जड़ एवं विकारी सिद्ध होगा। तथा उस अविनाशी सत् से भिन्न होने पर यह प्रत्यक् चैतन्य भी क्षणिक एवं विनश्वर हो जायेगा। अतः परमार्थ सत्ता एवं प्रत्यक् चैतन्य का भेद अनुभव विरुद्ध है। इस भेद रहित उपलब्धि का एक मात्र द्वार है वह महापुरुष जो ऐक्यबोध की प्रचण्ड ज्वाला में अविद्या और उसके विलास को भस्मसात् कर चुका है।
(क्रमशः )