श्री श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज के संस्मरण-1

     स्वयंप्रकाश सर्वाधिष्ठान आत्मस्वरूप ब्रह्म ही सम्पूर्ण नामरूपात्मक प्रपञ्च के रूप में प्रतिभात हो रहा है। वह स्वयं ही विषय और विषयी के द्विविध रूप में विवर्तमान होकर भी अपने अद्वितीय निर्विकार स्वरुप में ही प्रतिष्ठित है। इस अनिर्वचनीय विश्व में जो लौकिक, पारलौकिक अथवा अलौकिक दिव्य चमत्कार चमक रहे हैं इनसे उसकी एकरस अनुभवस्वरुप अद्वितीयता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। विश्व के एक-एक कण में विराजमान अगणित वैचित्र्य एवं परस्पर विलक्षणताएँ उसके निर्निमित्त भेदरहित अभ्यादि स्वातंत्र्य का ही उद्घोष करती हैं। निखिल वेद्य पदार्थ अपने परम स्वरूप की एकता, अधिष्ठानता एवं चिन्मात्रा से ही उद्भासित हैं। वह परम स्वरुप भी प्रत्यक् चैतन्य से भिन्न होने पर तो अनुभाव्य, जड़ एवं विकारी सिद्ध होगा। तथा उस अविनाशी सत् से भिन्न होने पर यह प्रत्यक् चैतन्य भी क्षणिक एवं विनश्वर हो जायेगा। अतः परमार्थ सत्ता एवं प्रत्यक् चैतन्य का भेद अनुभव विरुद्ध है। इस भेद रहित उपलब्धि का एक मात्र द्वार है वह महापुरुष जो ऐक्यबोध की प्रचण्ड ज्वाला में अविद्या और उसके विलास को भस्मसात् कर चुका है। 

(क्रमशः )

 

भक्ति

  • यह निश्चित है कि ईश्वर के लिए किया हुआ एक भी संकल्प व्यर्थ नहीं जाता; क्योंकि वह एक चेतन कल्पवृक्ष है और अपने प्रेमी की सब इच्छाओं को जानता तथा उन्हें पूरी करने का सामर्थ्य रखता है। उसका हृदय बहुत ही कोमल है। प्रेमी की प्रत्येक प्रार्थना पूरी होगी। 
  • कृष्ण की शरण ले लो। हर जगह तुम्हें मदद मिलेगी। विश्वास और निष्ठा से जब तुम पुकारोगे, वे अवश्य आयेंगे। 
  • अपने प्राण-प्यारे आनन्द-मुकुन्द की स्मृति और सेवा पूजा हो तो और कुछ नहीं चाहिए। अपना देवता अपने मन में रहे। उसकी सेवा-पूजा ही अपनी साधना हो। 
  • पारस्परिक प्रेम से सब काम बन जाते हैं। कृष्ण की सेवा और प्रसन्नता भी सुलभ हो जाती है। मन में उद्वेग भरा हो तो भगवान् के भजन में भी बाधा पड़ती है। जिसको भी तुम आनन्द दोगे और सेवा करोगे, वह तुम्हारे अनुकूल हो जायेगा। जिद और दबाव से सब काम बिगड़ जाते हैं। 
  • किसी भी देश और वेश में रहो, अपने हृदय सुखस्वरूप परमात्मा से तर रक्खो। श्री कृष्ण सर्वदा रक्षक हैं। 
  • यदि मनुष्य के मन में कोई दुःख, चिन्ता या भय हो तो उसे भगवान् का स्मरण करना चाहिए, मङ्गल होगा। 
  • इस जीवन को सुखी और शान्त बनाने के लिए श्रीकृष्ण-प्रेम ही सर्वोपरि है। मुकुन्द ही आनन्द की एकमात्र निधि है। सर्वदा भजन करना। 
  • अपने तो ठाकुर जी के इशारे पर नाचने वाले हैं। जैसे जब जहाँ रखें , रहने को तैयार। ब्रज के प्रेमी कहते हैं-                                                             

                                                                   “जैसे राखहु, वैसे रहौं।’                                                            

  • अपने प्रियतम प्रभु की इच्छा से नरक में रहना भी अच्छा है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए स्वर्ग में रहना भी स्वार्थ ही है। 
  • भोजन का छोटा भाई भजन। जैसे भोजन बिना नहीं चलता, भजन बिना भी न चले। भजन अपनी खुराक बने, जीविका बन जाये। काल का लोप भले हो जाय, भजन न छूटे। जगह, समय आसन – सब बदल जाय पर भजन न छूटे।      

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श्रीगुरु पूर्णिमापर –

     मनुष्य के मन में जो बात भरी रहती है उसी को वह प्रकट करता है। किसीकी प्रशंसा अपनी ही प्रशंसा है, ब्राह्मण के प्रति आदर, विद्वान् के प्रति श्रद्धा, त्यागी के प्रति आदर और श्रद्धा जब तुम व्यक्त करते हो तब जो अच्छाई तुम्हारे मन में है वही प्रकट होती है।

     आरती में जब तुम लोग “ब्रह्मानन्दं परम सुखदं ………………..” जैसे  अपने गुरु के लिए बोलते हो और वहाँ से आरती घुमाते हो,वैसे हम भी यहाँ से उस समय मन ही मन हमारे गुरु के लिए  ‘ब्रह्मानन्दं…..”  बोलते  हैं और आरती घुमाते हैं। तुम्हारे गुरु हैं तो क्या हमारे गुरु नहीं हैं ?

     बचपन में एक महात्मा ने मुझे बताया, यदि तुम्हें गुरु और शास्त्र के विरुद्ध कोई अनुभव हो, तो उसे झूठ मानना। वह कोई विघ्न है, तुम्हारे मन की दानव-भावना है। आज तो तुम्हें वह ठीक मालूम होगा; किन्तु आगे चलकर उससे तुम्हारी हानि होगी। 

     एक सज्जन भगवान् का भजन करते थे,सत्संग भी करते थे। और माला फेरते थे। उनको सपने में सट्टे के नंबर आते थे। मैंने उनसे कहा – ‘तुम इसे सच्चा मत मानो। कभी न कभी तुमको यह धोखा देगा। मुझसे ‘हाँ’ कहकर भी वे नंबर वाली बात छोड़ते न थे। एक बार तो मैंने प्रतिज्ञा भी करवायी, किन्तु उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़कर भी सपने के नंबर पर सट्टा किया। कई बार उन्हें इसमें फायदा हुआ; किन्तु एक बार उनकी सारी सम्पत्ति चली गई, पाँच-सात मकान निकल गये। जो लोग अपने सपने पर, मनोराज्य पर ज्यादा विश्वास करते हैं वे धोखे में पड़ जाते हैं। 

     एक महात्मा ने हमें जो तीन बातें बतायी थी, उनमें एक यह थी। उन्होंने मुझे बताया कि “गुरु और शास्त्र के विपरीत जो सपना दीखे, मनोराज्य हो – ध्यान में मालूम पड़े उसका आदर न करो।” सपने में ठाकुरजी कहें ‘ब्याह करो’ तो मत मानना कि वह ठाकुरजी का हुकुम है, वह तो तुम्हारे मन में वासना है; वह ठाकुरजी बनकर आयी है। वैराग्य, त्याग, निर्वासनता के अनुकूल जो आदेश मिलते हैं वे ईश्वर के आदेश होते हैं। ईश्वर के आदेश संसार में फंसाने वाले नहीं होते। ईश्वर हमें अपनी ओर बुलाता है, उल्टी दिशा में नहीं भेजता।  

 

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जीवनोपयोगी सूत्र

     दूसरे की जानकारी ही दुःख है। हम अंग्रेजी नहीं पहचानते। A, B अभीतक जानने की कोशिश नहीं की, प्रयत्न करता तो जान लेता। गिनती में भी वही बात है। 6 और 9 में गलती होती है। मैं छोटा था तब अंग्रेजी बोलने वालों की बस्ती में जाता था। वहाँ के लड़के हमें देखकर अंग्रेजी में गालियाँ देते थे; किन्तु हम तो कुछ समझते न थे ! एक अंग्रेज अफ़सर ने कहा : ‘ये लड़के तो बड़े असभ्य हैं, वे तुम्हें गाली देते हैं। यह जाना; तब दुःख हुआ। जीवन में दुःख बाहर से नहीं आता, भीतर से निकलता है। दूसरे का दोष जानना दुःख है। अभिमान करना कि मैं बड़ा विद्वान् और दूसरों में दोष देखना; यह विद्वान् होकर दुःख निकलता है। एक व्यक्ति ने पाँच रुपया खोया और दुःखी हुआ। मैंने कहा : ‘चला गया? कुछ आया तो नहीं ? अब दुःख बुलाना क्यों ? जो गया उसे जाने दो। रुपया गया तो गया, दुःख मन में क्यों आये? डाकू पैसा ले जाय और उस डाकू को क्यों घर में बुलाना ? दुःख मेहमान है। 

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     हमारे गुरु, परम गुरु, परात्पर गुरु किस मार्ग पर चले हैं, वे किस प्रकार साधक को धीरे-धीरे ऊपर उठाकर मार्ग पर चलाते हैं, यह समझ कर हमें भी वैसे ही करना चाहिए। 

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     मैं अट्ठारह-उन्नीस वर्ष की वय में ही संतों के चक्कर में पड़ गया था। मुझे सत्सङ्ग – कुसङ्ग दोनों मिले। अच्छाई-बुराई,ईमानदारी-बेईमानी दोनों हम जानते हैं। ऐसे ही जीवन की धारा बहती रहती है, चक्रवत् घूमती रहती है। हमारे साधन, आचरण पवित्र होने चाहिए। 

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विवर्त काअर्थ

     देश, काल और देशकाल में दिखने वाली पदार्थ-समष्टि- सबका-सब परमात्मा के असल स्वरूप में जादू का खेल है- माया है- विवर्त है।  “वि” माने विपरीत-विरुद्ध और “वर्त” माने वर्तन, विपरीत वर्ताव- विरुद्ध वर्ताव। एक को अनेक देखना विरुद्ध वर्ताव है, चेतन को जड़-देखना विरुद्ध वर्ताव है, द्रष्टा को दृश्य देखना विरुद्ध वर्ताव है, अपने को अनेक रूप में देखना- अन्य रूप में देखना विरुद्ध वर्ताव है। विपरीतं वर्तनं विवर्तः विरुद्धं वर्तनं वा विवर्तः। जो वस्तु जैसी है उसके विरुद्ध उसको देखना- केवल मन के सम्बन्ध से- विरुद्ध वर्तन है। जितने भी पदार्थ हैं, सब के सब अपृथग्-भाव हैं। अपृथग्भाव अर्थात् परमात्मा से पृथक् इनकी कोई सत्ता नहीं। ये सब के सब सत्ता-शून्य होकर ही परमात्मा में दिखाई पड़ते हैं। जो इस बात को ठीक-ठीक जनता है- जो जानता है कि जितनी भी चीजें घड़ा, कपड़ा, स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी, मनुष्य  आदि अलग-अलग मालूम पड़ने वाली वस्तुएँ असल में एक अखण्ड, अद्वय तत्त्व में ही मालूम पड़ती है। जिसे यह ज्ञात हो गया कि एक में ही अनेक की कल्पना हो रही है। यह जो इदं सर्व के रूप में दिखाई पड़ रहा है, यह आत्मा ही है-ब्रह्म ही है, जो अलग-अलग रूपों में दिखाई पड़ रहा है इस बात को जिसने जान लिया उसकी तो छुट्टी है। जो यह जान गया कि ब्रह्म के अतिरिक्त न स्वर्ग है, न नरक, न गोलोक है, न कैलाश, न वैकुण्ठ है, न धरती, सात पाताल, सात स्वर्ग ये कोई ब्रह्म से भिन्न नहीं है। एक परमात्मा से अलग कोई नहीं है। यह तत्त्व ज्ञान जिसको हो गया वह तत्त्वविद् है।   

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