मैं बहुत छोटा था तब से ईश्वर की ओर झुकाव हो गया था। एक महात्मा ने मुझे कहा : ‘तेरे शरीर में कितने कीटाणु हैं इसकी तुझे खबर है ? उसे मालूम कर, तभी तू यह जानेगा कि तेरे शरीर में कितने विश्व छिपे हैं।’
यह सुनकर मैं इरविन अस्पताल में गया और डॉक्टर की खुर्दबीन द्वारा खून के एक ही बूँद में असंख्य कीटाणुओंको घूमते-फिरते देखा। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।
जैसे अपने शरीर के कीटाणुओं को हम देख नहीं पाते, वैसे ही हमारे शरीर के कीटाणु भी हमको नहीं जानते।
भागवत कहता है : जिस तरह आकृतियाँ नेत्र को नहीं जानती,पुष्प का रंग और कृति आँख को नहीं पहचानते, शरीर के कीटाणु हमको नहीं पहचानते।’
रोग बढ़ाने वाला अन्न शरीर में जाने पर शरीर में उपस्थित रोग के कीटाणुओं को आनन्द-ही-आनन्द हो जाता है और रोग कम करनेवाली दवाइयाँ अन्दर जाती हैं तब रोग के कीटाणुओं में उथल-पुथल मच जाती है कि हमारे विनाश का यह मूल कहाँ से आया ?
जिस महान् शरीर (विश्व) के हम कीटाणु हैं उस महान् शरीर को हम भी नहीं जानते।
हम खुर्दबीन लगाके और सब देख सकते हैं परन्तु हम जिसके कीटाणु हैं उस विश्व शरीर को नहीं देख पाते। क्योंकि विज्ञान भी एक मर्यादा है।
एकमात्र ईश्वर ही मर्यादा से विलक्षण अमर्याद है। साथ-ही-साथ वह अमर्त्य और अनादि है।