विश्व शरीरके कीटाणु

     मैं बहुत छोटा था तब से ईश्वर की ओर झुकाव हो गया था। एक महात्मा ने मुझे कहा : ‘तेरे शरीर में कितने कीटाणु हैं इसकी तुझे खबर है ? उसे मालूम कर, तभी तू यह जानेगा कि तेरे शरीर में कितने विश्व छिपे हैं।’

   यह सुनकर मैं इरविन अस्पताल में गया और डॉक्टर की खुर्दबीन द्वारा खून के एक ही बूँद में असंख्य कीटाणुओंको घूमते-फिरते देखा। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।

    जैसे अपने शरीर के कीटाणुओं को हम देख नहीं पाते, वैसे ही हमारे शरीर के कीटाणु भी हमको नहीं जानते।

     भागवत कहता है : जिस तरह आकृतियाँ नेत्र को नहीं जानती,पुष्प का रंग और कृति आँख को नहीं पहचानते, शरीर के कीटाणु हमको नहीं पहचानते।’

     रोग बढ़ाने वाला अन्न शरीर में जाने पर शरीर में उपस्थित रोग के कीटाणुओं को आनन्द-ही-आनन्द हो जाता है और रोग कम करनेवाली दवाइयाँ अन्दर जाती हैं तब रोग के कीटाणुओं में उथल-पुथल मच जाती है कि हमारे विनाश का यह मूल कहाँ से आया ?

     जिस महान् शरीर (विश्व) के हम कीटाणु हैं उस महान् शरीर को हम भी नहीं जानते।

     हम खुर्दबीन लगाके और सब देख सकते हैं परन्तु हम जिसके कीटाणु हैं उस विश्व शरीर को नहीं देख पाते। क्योंकि विज्ञान भी एक मर्यादा है।

     एकमात्र ईश्वर ही मर्यादा से विलक्षण अमर्याद है। साथ-ही-साथ वह अमर्त्य और अनादि है।  

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चलो- दुःख में – से सुख बनायें ।

     सुख या  दुःख बाहर की कोई परिस्थिति नहीं है, मन की स्थिति है। 

     मन के सम्वेदन में  सुख या दुःख बैठे हैं। वासना की दुर्गन्ध अर्थात् दुःख। 

     निस्पृहता की सौरभ माने सुख। 

     हमारे जीवन में सुख-दुःख दूसरे किसी के हाथ में नहीं, अपने ही हाथ में है। 

    हमारे माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र सुख या दुःख नहीं दे सकते। हमारे मन की वृत्ति ही सुख-दुःख की जननी बनती है।

     किसी लड़की से मैं पूछता हूँ कि, ‘क्या तुम्हें रोटी बनाना आता है।’ तो तुरन्त ‘हाँ’ कहती है, किन्तु मैं जो ऐसे पूछूँ  कि क्या तुम्हें दुखमें-से सुख बनाना आता है ? तो तुरन्त ही शरमा जाती है या मुरझा जाती है। 

     अच्छा भोजन मिले तो आनन्द से पाओ, किन्तु भोजन बिलकुल ही न मिले  तो एकादशी मानकर खुश हो जाओ। 

    एक दिन एक महात्मा ने मुझे बहुत गालियाँ दी !!

     मैं तो बैठा ही रहा। फिर जब वे शान्त हुए तब मैंने गाली देने का कारण पूछा।

     उन्होंने कहा : ‘अरे भाई ! तुझे इस संसार में बहुत ही गालियां खानी पड़ेंगी। उस समय तू घबड़ा न जाय उसकी शिक्षा देने के लिए ही गालियाँ देता हूँ। गालियाँ आनन्द से खाने की आदत पड़ जाय तो अवसर आने पर चित्त कितना प्रसन्न रह सके !’

     इसलिए हम सबको सुख पैदा करने की विद्या सीख लेनी चाहिए।  

     एक समय हम प्रेमपुरी जी महाराज के साथ वर्षा के दिनों में मोटर में जा रहे थे, एक दूसरी मोटर तेजी से पास से निकल गयी, और कीचड़ का फुहारा उड़ाया और हम सबके कपड़े रङ्ग दिये, साथ ही साथ कीचड़ स्वामीजी के मुँह में भी घुस गया।

     प्रसंग तो मोटरवाले के ऊपर गुस्सा आ जाय, ऐसा था, किन्तु प्रेमपुरी जी महाराज खुश हो गये और बोले; ‘वाह ,आज तो मोटर का चरणामृत मिल गया।’

     दुःख को सुख में पलटने की कितनी सुन्दर कला है !

     प्रतिकूलता को अनुकूलता में पलट देने की कला आ जाये तो सदासर्वदा परमानन्द ही परमानन्द रहे।  

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ऐसे जीओ कि ईश्वर अपने में ही दिखाई दे !

     आदरणीय सत्पुरुषों के प्रति आदर-भक्ति और पूज्यभाव जरूर रखो। किन्तु उनके समक्ष ‘तुम कुछ भी नहीं हो’, ऐसी आत्मग्लानि न महसूस करो। 

    ईश्वर तो सर्वत्र बैठा है। इसलिए सामनेवाले में ही ईश्वर बैठा है और हममें नहीं, यह बात ठीक नहीं है। सर्वव्यापक परमात्मा तो सामने बैठे हुए व्यक्ति में भी बैठा है और हममें भी बैठा है। 

     हमें इस तरह से व्यवहार करना चाहिए कि अपने में बैठा हुआ ईश्वर हमारे सद्वर्तन से, हमारे सद्भाव से और हमारे उच्च जीवन से हममें ही अनेकको दर्शन दे। 

     एक महात्मा से किसी ने पूछा : ‘ईश्वर कैसा ?

     महात्मा ने कहा : ‘तेरे जैसा।’

     उसने फिर पूछा : ‘और मैं  कैसा ?’

     महात्मा हँसकर बोले :  ‘अरे भाई, तू अपने को ही नहीं जानता तो फिर जगत् के प्रकाशक को कैसे जानेगा ?’

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“तमसो मा ज्योतिर्गमय”

  •  कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है, परन्तु चन्दन कटकर भी उसे सुगन्ध देता है। इसी प्रकार अपकार करनेवाले के प्रति भी महात्मा दयालु ही रहते हैं। पूतना ने मारना चाहा, परन्तु भगवान् ने उसे माता की गति दी। तब वात्सल्यमयी माता का क्या कहना।
  • विष किसे व्यापता है ? जिसमें विषमता है। विषमता अर्थात् पक्षपात। विष का फल है – दुःख। पक्षपात का फल भी दुःख है। जिसके हृदय में वह है, सबसे पहले उसे ही दुःख होगा।
  • ब्रिटेन के दार्शनिक विद्वान् एकदिन अपने बछड़े को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। नौकर उस समय नहीं था। वे कितनी भी पूँछ ऐंठे, रस्सी खींचे, बछड़ा टस-से-मस न होता था। वह तो पैर अड़ा कर खड़ा हो गया  था। नौकर आया और कहा- सर ! आप कष्ट न करें, मैं उसे ले चलता हूँ। उसने थोड़ी-सी  हरी-हरी घास लेकर बछड़े के मुँह के सम्मुख कर दी। घास के लालच में, जहाँ ले जाना था, बछड़ा अपने आप बढ़ता चला गया। कोई शक्ति-प्रयोग नहीं करना पड़ा।

          हमारा मन भी ऐसा ही हठी बछड़ा है, जिसे शक्ति के द्वारा, शासन के द्वारा, दण्ड के द्वारा वश में नहीं          किया जा सकता। उसे तो भगवल्लीला का मधुर भोजन दिखाकर, प्रेम से अनुकूल बनाया जा सकता              है।

  • तत्त्व का गुण यही है कि वह सबके लिए सम है, किसी के लिए कोई रोक-टोक नहीं। पृथिवी, जल, तेज वायु और आकाश भले-बुरे का पापी-पुण्यात्मा का- किसी का भेद नहीं करते। सभी को धारण करते हैं। निष्पक्ष और सम रहकर सबको सत्ता-स्फूर्ति देते हैं। वैसे ही अपना जीवन हो अर्थात् पृथिवी का गुण क्षमा, सहिष्णुता; जल का गुण जीवन देना, रस देना, तृप्ति देना; वायु का प्राण दान करना; अग्नि का उज्ज्वलता-प्रकाश तथा दबाव में आकर बुराई न करना; आकाश का सबको अवकाश देना- असंगता ये गुण अपने जीवन में खरे-खरे उतरें। यही तात्त्विक जीवन, पूर्ण जीवन का अर्थ है। 
  • बन्धन क्या है ? भ्रान्तिका – बेवकूफी का विलास। 
  • शरणागति फलप्रद होती है, अनन्यता में। किसी अन्य का आश्रय लिया कि शरणागति टूटी। 
  • तुम्हारा चित्त, तुम्हारा चेतन फिल्म की तरह दृश्य को, घटना को पकड़कर न रखे। वह शीशे की तरह हो। जैसे कार में लगा शीशा पीछे आने वाली कार को, सड़क पर हुई दुर्घटना को या कहीं लगी हुई आग को केवल दिखा देता है, अपनेमें  उसको ग्रहण करके चिपका नहीं लेता। इसी प्रकार यह संसार दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब की भाँति ही तुम्हारे चित्त में आये। संसार की उथल-पुथल तुमको प्रतीत हो पर प्रभावित न कर सके। कान, आँख, नाक, जीभ आदि अपने-अपने गुण असंग होकर ग्रहण करें। व्यक्ति रहने पर भी जीवन तात्त्विक हो। 

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