ज्ञान कणिका

  

                  नारायण, ज्ञान तो हो, किन्तु वह ज्ञेय पदार्थों से न लिया जा रहा हो और ज्ञाता होने का अभिमान न हो। आनन्द तो हो,परन्तु विषयों से न लिया जा रहा हो अर्थात् भोग न हो और भोक्ता होने का अभिमान न हो- ऐसी अवस्था का नाम ही ध्यान है। इस अवस्था में जो ज्ञान और आनन्द है, वह ईश्वर का स्वरूप ही है। 

 
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                         मरना-मारना, दुःखी होना-दूसरे को दुःख देना, स्वयं मूर्ख बनना- दूसरे को मूर्ख बनाना, ये छः शैतान के बच्चे हैं। इन्हें अपने घर में बसाना उचित नहीं है। जो अपना घर छोड़कर पराये घर अर्थात् संसार में जाता है,उसे ही ये पकड़ते हैं। 

 
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                           बचपन से ही मेरा त्याग-पक्ष की ओर झुकाव रहा है। मुझे संसार की कोई वस्तु इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं जँचती, जिसके लिये संघर्ष करना आवश्यक हो। एक अन्तःकरण में रहनेवाली शान्ति कोटि-कोटि मानव हृदय के लिये शान्ति का उद्गम बन जाती है। यह आवश्यक है कि त्याग तपस्या की अपेक्षा रखता है। जो तपस्वी संयमी नहीं है,वह त्यागी भी नहीं हो सकता। 

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रोग का कारण

 

 

   आपके शरीर में जो रोग हैं , वे चित्त में विद्यमान वासनाओं के कारण भी हो सकते हैं। रोगों को केवल प्रारब्ध मान बैठना ही उचित नहीं है। आहार-विहारादि, दोष, परिश्रम, कुसंग, कुकर्म, बलात् वासनाविरोध भी रोग के कारण हो सकते हैं। मनु और याज्ञवल्क्य दोनों का कहना है कि मनुष्य को ब्राह्ममुहूर्त में जगकर अपने रोगों के कारण और निवारण पर विचार करना चाहिए। क्या करने-न-करने से रोग होता है और करने-न-करने से रोग मिटता है, निश्चयपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। जैसे क्षुधानिवृत्ति को प्रारब्ध पर नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे हो शारीरिक रोग को भी।   

 

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अशान्ति क्यों ?

       

 

          आपके मन में अशान्ति क्यों है ? केवल विक्षेपमात्र है, तो अभ्यास से दूर हो सकता है। शान्ति मिल सकती है। यदि वासनाओं के कारण है तो धर्मानुसार उपयोग करके उनका नियंत्रण कीजिये अथवा भक्तिभावना से भगवद्विषयक वासना बनाइये। यह सर्वथा निश्चित है कि मन में कामना हुए बिना अशान्ति नहीं होती। आप जो हटाना या सटाना चाहते हैं, उसमें असमर्थ होने पर अशान्त हो जाते हैं। अच्छा समझते हैं, अच्छा करना चाहते हैं, न कर पाने पर अशान्ति घेर लेती है। अतः कामना के नियंत्रण के लिए  उसका धर्मानुसार नियंत्रित उपभोग अथवा उसे भगवद्विषयक बनाना आवश्यक है। यदि कामना न हो, केवल विक्षेप ही हो  तो आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार के द्वारा उसे मिटा सकते हैं।   

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ईश्वर-आराधन का चमत्कार

      विशेष-विशेष प्रयत्न करने पर अमुक-अमुक प्रारब्ध भी मिटाये जा सकते हैं। गोस्वामीजी ने  ‘भाविहुँ मेंटी सकहिं त्रिपुरारी’ कह कर संकेत किया है। अथर्ववेद में रोग, ग्रह आदि की निवृत्ति के लिए शान्ति के अनेक प्रसङ्ग हैं। पूर्वमीमांसा-शास्त्र की रीति से- ‘पौरुष की ही प्रधानता है, दैव की नहीं।’ आपने सुना होगा, योगिराज चांगदेव ने चौदह बार मृत्यु को लौटा दिया। मार्कण्डेय ने अपमृत्युपर विजय प्राप्त कर ली। सावित्री ने यमदूतों से सत्यवान् को छीन लिया। बात यह है कि जब दृढ़ विश्वास से भगवदाराधना की जाती है या निष्ठापूर्वक योग या ज्ञान का सम्पादन किया जाता है तब मनोवृत्ति इतनी ठोस हो जाती है कि प्रारब्धजन्य निमित्त भी उसको सुखी-दुःखी करने में समर्थ नहीं होते। आप मानें या न मानें, मैंने अनुभव किया है कि ईश्वर-आराधन मृत्यु को और दुःख को भी अपने पास फटकने नहीं देता।  

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