नारायण, ज्ञान तो हो, किन्तु वह ज्ञेय पदार्थों से न लिया जा रहा हो और ज्ञाता होने का अभिमान न हो। आनन्द तो हो,परन्तु विषयों से न लिया जा रहा हो अर्थात् भोग न हो और भोक्ता होने का अभिमान न हो- ऐसी अवस्था का नाम ही ध्यान है। इस अवस्था में जो ज्ञान और आनन्द है, वह ईश्वर का स्वरूप ही है।
मरना-मारना, दुःखी होना-दूसरे को दुःख देना, स्वयं मूर्ख बनना- दूसरे को मूर्ख बनाना, ये छः शैतान के बच्चे हैं। इन्हें अपने घर में बसाना उचित नहीं है। जो अपना घर छोड़कर पराये घर अर्थात् संसार में जाता है,उसे ही ये पकड़ते हैं।
बचपन से ही मेरा त्याग-पक्ष की ओर झुकाव रहा है। मुझे संसार की कोई वस्तु इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं जँचती, जिसके लिये संघर्ष करना आवश्यक हो। एक अन्तःकरण में रहनेवाली शान्ति कोटि-कोटि मानव हृदय के लिये शान्ति का उद्गम बन जाती है। यह आवश्यक है कि त्याग तपस्या की अपेक्षा रखता है। जो तपस्वी संयमी नहीं है,वह त्यागी भी नहीं हो सकता।