यशोदा गुणगान और दधिमन्थन दोनों साथ-साथ करती हैं। बाललीलाएँ अनेक हैं। उनका गान मुख्य है। दधिमन्थन गौण है। यदि वह शीघ्र समाप्त हो जाय तो गान के रस में बाधा पड़े। केवल दही नहीं मथा जाता, क्रियाशक्ति भी मथी जाती है। इसी से विषय (दही) और क्रिया (मन्थन) के सम्बन्ध से स्मृति परिपुष्ट होती है। परन्तु यशोदा ने इस गानामृत के आस्वादन में भी स्वसुखरूप स्वार्थ देखा। अतः उसको गौण करके पूरी शक्ति से दधिमन्थन में लग गयीं। भले ही अपने शरीर को पीड़ा पहुँचे- स्वेदादि हों, भगवद्भोग्य स्तन्यपयोरस का भी निरोध करना पड़े, तद्गत देवता का निरोध करना पड़े, आन्तर स्नेह-धारा में प्रतिबन्ध उपस्थित हो, फिर भी यशोदा दही मथती जा रही हैं। उनकी यह तत्परता देखकर मुक्त पुरुषों के हृदय में भी क्षोभ होता है। वे भी अपने स्नेह-लोभ का संवरण नहीं कर सकते। सोचने लगते हैं, हाय ! यह सुख-सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ। यशोदा माता के सिर से मालती के पुष्प गिर रहे हैं। इसका अभिप्राय बताते हुए आचार्य कहते हैं कि माता का केश-पाश सिद्धस्थान है। वहाँ मालती अर्थात् ब्रह्मविद्या की स्थिति है। मालती =मा + अलम्= लक्ष्मी से परिपूर्ण जगत् ‘मालम्’ है। उसका अतिक्रम करके जो रहे, सो मालती अर्थात् ब्रह्मविद्या। वह भी भले चली जाय परन्तु यशोदा दही मथेगी।
भगवान् का आना और दर्शन देना, यह क्रिया और ज्ञान दोनों का समन्वय है। सगुण-साकार दर्शन में यह समन्वय अपेक्षित है। इसी से बाह्य और आन्तर उभयविध वृत्तियों का निरोध होता है। हरि दुःखहारी हैं। वे माता का श्रम-दुःख निवारण करने के लिए मथानी को पकड़ते हैं अर्थात् करण का निरोध कर देते हैं। यह मातृ-निष्ठ और स्वनिष्ठ प्रीति के युगपत उदय के लिए युक्ति-विशिष्ट है। प्रीति जग गयी। भगवान् अंकातीत होने पर भी अंक पर आरूढ़ हुए। माता की प्रीति और भगवान् के अनुग्रह का यह स्पष्ट निदर्शन है। कृष्ण माँ का हार्द-रस स्नेह पी रहे हैं और माता पुत्र के स्मित-विकसित मुखारविन्द मधु का पान कर रही हैं। उभयनिष्ठ रस ही पूर्ण होता है, एकांगी रस अपूर्ण होता है।
– क्रमशः