उलूखल बन्धन-लीला-7

     यशोदा गुणगान और दधिमन्थन दोनों साथ-साथ करती हैं। बाललीलाएँ अनेक हैं। उनका गान मुख्य है। दधिमन्थन  गौण है। यदि वह शीघ्र समाप्त हो जाय तो गान के रस में बाधा पड़े। केवल दही नहीं मथा जाता,  क्रियाशक्ति भी  मथी जाती है। इसी से विषय (दही) और क्रिया (मन्थन) के सम्बन्ध से स्मृति परिपुष्ट होती है। परन्तु यशोदा ने इस गानामृत के आस्वादन में भी स्वसुखरूप स्वार्थ देखा। अतः उसको गौण करके पूरी शक्ति से दधिमन्थन में लग गयीं। भले ही अपने शरीर को पीड़ा पहुँचे- स्वेदादि हों, भगवद्भोग्य स्तन्यपयोरस का भी निरोध करना पड़े, तद्गत देवता का निरोध करना पड़े, आन्तर स्नेह-धारा में प्रतिबन्ध उपस्थित हो, फिर भी यशोदा दही मथती जा रही हैं। उनकी यह तत्परता देखकर मुक्त पुरुषों के हृदय में भी क्षोभ होता है। वे भी अपने स्नेह-लोभ का संवरण नहीं कर सकते। सोचने लगते हैं, हाय ! यह सुख-सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ। यशोदा माता के सिर से मालती के पुष्प गिर रहे हैं। इसका अभिप्राय बताते हुए आचार्य कहते हैं कि माता का केश-पाश सिद्धस्थान है। वहाँ मालती अर्थात् ब्रह्मविद्या की स्थिति है। मालती =मा + अलम्= लक्ष्मी से परिपूर्ण जगत् ‘मालम्’ है। उसका अतिक्रम करके जो रहे, सो मालती अर्थात् ब्रह्मविद्या। वह भी भले चली जाय परन्तु यशोदा दही मथेगी। 

     भगवान् का आना और दर्शन देना, यह क्रिया और ज्ञान दोनों का समन्वय है। सगुण-साकार दर्शन में यह समन्वय अपेक्षित है। इसी से बाह्य और आन्तर उभयविध वृत्तियों का निरोध होता है। हरि दुःखहारी हैं। वे माता का श्रम-दुःख निवारण करने के लिए मथानी को पकड़ते हैं अर्थात् करण का निरोध कर देते हैं। यह मातृ-निष्ठ और स्वनिष्ठ प्रीति के युगपत उदय के लिए युक्ति-विशिष्ट है। प्रीति जग गयी। भगवान् अंकातीत होने पर भी अंक पर आरूढ़ हुए। माता की प्रीति और भगवान् के अनुग्रह का यह स्पष्ट निदर्शन है। कृष्ण माँ का हार्द-रस स्नेह पी  रहे हैं और माता पुत्र के स्मित-विकसित मुखारविन्द मधु का पान कर रही हैं। उभयनिष्ठ रस ही पूर्ण होता है, एकांगी रस अपूर्ण होता है।  

                                                                                                                                    – क्रमशः

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उलूखल बन्धन-लीला-6

      माता दधिमंथन कर रही है। उसके मन में लालसा है कि लाल के शयन से उठने के पूर्व सद्-माखन  (सद्योनवनीत) निकाल लूँ परन्तु मंथन करे कृष्ण को खिलाने के लिए, लालसा करे और वे सोते रहें –  यह भगवत्स्वरूप के अनुरूप नहीं है – ‘तांस्तथैव भजाम्यहम्’ इस स्वभाव के अनुगुण ही कुछ करना चाहिए। माँ का स्नेह देख कर कृष्ण का हृदय स्नेह से भर गया। हृदय द्रवित हुआ। शरीर में रोमाञ्च, मुख पर मुस्कान, नेत्रों में चमक, साथ ही माँ के पास पहुँच जाने की ललक। अंगड़ाई ली,हाथों से नेत्र मल लिए, कपोलों पर कज्जल फ़ैल गया। माँ-माँ बोले, पलंग पर पाँव लटकाकर बैठ गये। बिना हाथ-मुँह धोये माँ के पास पहुँच कर पल्ला पकड़ लिया-ऊँ-ऊँ, मैं दूध पीऊँगा। माँ मन्थन में लगी रही। शिशु अपना।  दूध छाती में। मक्खन आने ही वाला है, कहीं बैठ न जाय। ध्यान नहीं दिया। शिशु-ब्रह्म धरती में लोट-पोट होने लगा, रोने लगा। फिर भी ध्यान न देने पर रयि (मथानी) पकड़कर मन्थन का निषेध कर दिया। सारे कर्म, सभी साधन तभी तक हैं जबतक परमेश्वर न मिले। वह नवनीतों का नवनीत श्याम ब्रह्म आ गया तो मन्थन से क्या लाभ? प्रयोजन-पूर्ति से साधन का बाध हो जाता है। नदी के पार पहुँच गये, अब नाव का क्या प्रयोजन ? यशोदा माता ने उपनिषत्सुधाब्धि में आहिण्डन करने वाली विवेक की मथानी मानो छोड़ दी। अपने हृदय से लगे शिशुब्रह्म को दूध पिलाने लगी। 

     आचार्य वल्लभ इस प्रसङ्ग का रसास्वादन करते हुए कहते हैं कि ऊखल-बन्धन अत्यंत विस्मयकारी चरित्र भक्ति को निश्चल करने के लिये है। इसके द्वारा भगवान् के स्वरूप, कृपालु स्वभाव  और दया मिश्रित ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है। यदि भक्तों का भगवान् में और भगवान् का भक्तों में परस्पर निरोध हो जाय तो उभयसम्बन्ध से दृढ़ हो जाता है। जीव का ज्ञान-वैराग्य और भगवान् का अनुग्रह – इन्हीं से भगवान् का वशीकार सिद्ध होता है। भक्ति नवधा प्रसिद्ध है। दसवीं गुणातीत है। अथवा नौ अंग हैं और उनमें अनुगत दसवीं भक्ति स्नेह है। अतः इसमें कर्मकाण्ड  और ज्ञानकाण्ड दोनों का समावेश हो जाता है। जीव जब ईश्वर से प्रेम करने लगता है तब एकबार भगवान् भागते हैं। इससे आसक्ति और दृढ़ हो जाती है।

(क्रमशः)  

 

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उलूखल बन्धन-लीला-5

     भक्तमाता यशोदा का दर्शन कीजिये। वह समग्र यश के निधान भगवान् श्री कृष्ण को सतृष्ण बना कर अपना स्नेहसार आस्वादन करने के लिये उत्सुक बना देती है। उसमें ऐसा क्या विशेष है ? देखिये, स्वयं आनन्द-गेहिनी नन्दगेहिनी है परन्तु अपने शिशु के प्रति इतना प्रेम है कि जान-बूझ कर गृहदासियों को दूसरे कर्मों में लगा देती है। अपने हाथों से श्रीकृष्ण के लिए विशेष रूपसे निश्चित पद्मगन्धा  गाय के दूध से जमे दही का मंथन करती है। माँ अपने हृत्पिण्ड वात्सलयभाजन शिशु के लिए अपने हृदय का स्नेह तो देती ही है, उसका मूर्तरूप दूध भी पिलाती है। यदि नवनीत खिलाना हो तो दूसरे के हाथ का निकाला हुआ नहीं, अपने हाथ का निकाला हुआ हो। माता माने मूर्तिमान् स्नेह। माता के अतिरिक्त और किसी के हृदय का भाव शिशु के लिए ठोस वस्तु का रूप (जैसे दूध)ग्रहण नहीं करता। माता यशोदा का कर्म दधिमन्थन कृष्ण के लिए है। उसके हृदय में स्मरण कृष्ण की बाल लीलाओं का है। स्मरण संगीत की रसमयी धारा के रूप में वाणी से मूर्छित हो रहा है। कर्म, मन और वाणी तीनों कृष्ण के लिए। भक्ति का यही स्वरुप है। कर्म में उद्देश्य भगवान् का हो अर्थात् उसके लिए किया जा रहा हो। स्मरण का विषय भगवान् हो।  वाणी के शब्द भगवत्सम्बन्धी हों। यह मूर्तिमती भक्ति है। इसे अपने शरीर और शृङ्गार का विस्मरण है। स्वेद झलकता है मुख पर। मालती के पुष्प सिर से झड़ कर पाँव में गिरते हैं। शुकदेव जी इसकी झाँकी का दर्शन करते हैं। सच-मुच यह भक्तिमाता ही यश के निधान भगवान् मेंअविद्यमान यश का दान करती है।भगवान् स्वतंत्र हैं वे भक्त के परतंत्र हो जाते हैं, ऐसा यंत्र-मन्त्रभक्तिमाता के जीवन में ही होता है।माता न होती तो भक्तवश्यता का यश कहाँ से मिलता ? 

(क्रमशः)

 

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उलूखल बन्धन-लीला-4

     नित्यसिद्ध भक्तों की चर्चा छोड़ दें। नित्यसिद्ध यशोदानन्द का दर्शन दुर्लभ है। ब्रह्मा हैं महापुरुष। उनके कृपाप्रसाद के पात्र हैं द्रोणवसु एवं उनकी पत्नी धरा। इनका स्नेह सिद्ध हुआ ब्रह्मा की कृपा से। इन्होंने शिशु-ब्रह्म को प्रेम-बन्धन में बांध लिया। यशोदा ने रस्सी से ऊखल में बाँधा। कृष्ण के साथ बंधे ऊखल ने जड़ वृक्षों का उद्धार कर दिया। यह महापुरुष के प्रसाद की परम्परा हुई। और भी देखिये, महापुरुष नारद के मन में उद्दण्ड सुरापायी, अनाचारी, परस्त्रीसमासक्त यक्ष-राजकुमारों पर करुणा का उदय हुआ। उन्होंने उनमें स्वधर्म (भगवद्भक्ति) का संचार कर दिया। उन्हें प्रपञ्च-विस्मृति के रूप में जड़- वृक्षयोनि और हृदय में भगवत्स्मृति प्राप्त हुई। यह अनुग्रह है। श्री कृष्ण की प्राप्ति हुई- यह प्रसाद है। इस प्रकार प्रपञ्च -विस्मरण, भगवत्स्मरण, भगवद्दर्शन महापुरुष के कृपा-प्रसाद से ही प्राप्त होते हैं। 

     आइये, गोकुल गाँव के तीन लोक से न्यारे पथ में। यह स्थान-विशेष में सर्वोपादान परमेश्वर का आविर्भाव है। दामोदर-मास कार्तिक में अर्थात् काल-विशेष में लीला का अवतरण है। यशोदा मैया की गोद में रूप अवतरण है। सब कृष्ण ही कृष्ण हैं।

(क्रमशः)

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उलूखल बन्धन-लीला-3

     राजा परीक्षित यह लीला सुनते-सुनते मृत्यु की विभीषिका और मोक्ष की अभीप्सा से मुक्त हो गये। उन्होंने अपने हृदय की लालसा प्रकट की- ‘यह सुख-सौभाग्य  जो देवकी-वसुदेव के लिए भी अलभ्य है, इन्हें कैसे मिला ? मुझे कैसे मिलेगा ?’ शुकदेव मुनि मुस्कराये- ‘बस, इतने में ही आश्चर्यचकित हो गये ? यशोदा माता ने इस शिशु-ब्रह्म को गाय बांधने की रस्सी से ऊखल में बाँध दिया था। इतने भक्तवत्सल, भक्तों के इतने अपने। वस्तुतः प्रेम भक्त के हृदय में नहीं होता, वह ईश्वरके हृदय में होता है। ईश्वर जब भक्त के परवश होकर विवशता की माधुरी का आस्वादन करता है तो उसे आत्मसुख से भी कुछ अधिक अनुभूति होती है। जहाँ विवशता में भी मिठास का अनुभव हो वहाँ प्रेमरस छलकता है। ईश्वर का यह बन्धन भक्त-वात्सल्य का अनुपम उदाहरण है।’

     इसकी उपलब्धि कैसे होती है ? जो साधन से मिलता है वह सीमित पारिश्रमिक होता है। जो स्वामी की कृपा से मिलता है वह कब मिले; कब न मिले, यह निश्चित नहीं रहता। तब भगवद्रस का आस्वादन कैसे हो ? न साधन, न कृपा। एक तीसरा मार्ग है। वह है महापुरुष का प्रसाद। यह ठीक है कि ईश्वर के अधीन है सबकुछ, परन्तु वह ईश्वर प्रेम के अधीन है। प्रेम का धनी है। महापुरुष और प्रेम का प्रेप्सु है ईश्वर। महापुरुष भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हृदय में प्रेमरस का संचार करके उसके द्वारा ईश्वर की रस-पिपासा को तृप्त करते हैं। अतएव महापुरुष जब ईश्वर से कह देते हैं कि तुम इस भक्त के साथ ऐसी लीला करो, ईश्वर को वैसा ही करना पड़ता है और इस विवशता में ईश्वर का प्रेम उच्छलित होने लगता है। महापुरुष के प्रसाद से यह रस केवल भक्त को ही नहीं, अभक्त को भी मिल सकता है। उदाहरणार्थ, कुबेर के उद्दण्ड एवं जड़भावापन्न यमलार्जुन। 

(क्रमशः )

 

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