आईये, मेरे साथ गोकुल में चलिये। भले ही आप अन्तर्देश के निभृततम प्रदेश में प्रवेश करके नितान्त शांत स्थिति में विराजमान हों। आइये, एकबार एकान्तकान्तार का शून्यप्रदेश छोड़कर, जहाँ गौएँ-इन्द्रियाँ घूम-फिरकर विषय-सेवन करती हैं वहीं उन्हीं के बीच में उन्हीं विषयों में, निराकार नहीं साकार, अचल नहीं चञ्चल, कारण नहीं कार्य, विराट् नहीं शिशु, गंभीर नहीं स्मितसुन्दर, जगन्नियन्ता नहीं यशोदोत्सङ्गलालित, साक्षात्परब्रह्म का दर्शन करें। यह ब्रह्म का प्रतीक नहीं है, साधन करके ब्रह्म नहीं हुआ है, अविद्यानिवृत्ति करके ब्रह्मानुभूति नहीं प्राप्त की है, यह ब्रह्म का अवतार नहीं है, यह आचूल-आपादमूल शिशु-ब्रह्म है- इसके दर्शन कीजिये।
अभी-अभी यशोदा माता इस शिशु के मुख में विश्व-दर्शन करके चकित-विस्मित हो चुकी हैं। श्याम-ब्रह्म ने सोचा- कहीं मेरी माँ सिंहासन पर बैठा कर चंदनमाल्य अर्पित न करने लगे, आरती न उतारने लगे इसलिए ‘मैया-मैया’ कहकर गले में दोनों हाथ डाल दिये, हृदय से मुख लगा दिया। माता सबकुछ भूलकर दुग्धाकार-परिणत हार्दस्नेह-रस का पान कराने लगी। पहले का विश्वरूपविस्मृति के गर्भ में लीन हो गया। ऐश्वर्य अन्तर्धान हो गया। शैशव-माधुरी अभिव्यक्त हुई। इसमें प्रपञ्च का विस्मरण और शिशु-ब्रह्म में परमासक्ति अनिवार्य है। यह सुख स्वर्ग के समान परोक्ष नहीं है, ब्रह्मानुभूति के समान शान्त नहीं है, विषय-संसर्ग के समान आपातरमणीय एवं विनाशी नहीं है। इस रस में देश,काल एवं वस्तु का लोप हो जाता है। ऐसा ही हुआ। माँ सबकुछ भूल कर इसी रस में डूब गयी।
(क्रमशः )