ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (7)

     जीवन की किसी घटना का कर्ता कोई मनुष्य नहीं है, ईश्वर है। अतः जब तुम किसी काम करनेवाले को गाली देते हो तो उस काम करने वाले को गाली नहीं देते, गाली सीधे ईश्वर को जाती है। एक बार किसी बड़े पण्डित ने कोई बात कही। बात मुझे जँची नहीं।  मैंने कह दिया- ‘किस मूर्ख ने ऐसा कहा है ?’ उस पण्डित जी ने मेरे गुरूजी का नाम लेकर कहा- ‘उन्होंने कहा है। ‘

     मैं- ‘तब तो ठीक है।’

     पण्डित जी – ‘पहले गली दे दी, अब कहते हो – ठीक कहा है।’ इसी प्रकार हम कार्यों को दूसरों का किया मानकर गाली देते हैं। जैसे खीर खिलाने वाला चटनी, नमक, मिर्च भी परसता है  कि इन्हें बीच-बीचमें  खाने से खीर का स्वाद बढ़ जायेगा, वैसे ही भगवान् बीच-बीच में अपमान, दुःख, अभाव, रोग भेजते हैं। इन्हें हमारे अभिमान को तोड़ने के लिए भेजते हैं।

    जन्माष्टमी भगवान् का अवतार-काल है। शरद-पूर्णिमा रास का दिन है। इसी प्रकार रामनवमी, शिवरात्रि आदि भगवत्स्मरण कराने वाले काल हैं। प्रत्येक महीने में एकादशी, द्वादशी, प्रदोष आदि आते हैं। अयोध्या, वृन्दावन, वाराणसी आदि देश भगवत्स्मरण कराने वाले हैं। संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, नरसी मेहता, सूरदास, तुलसीदास, गुरुनानक, आल्वार, नायनार आदि संतों को भगवान् ने हमारे कल्याण के लिए कृपा करके पृथिवी पर भेजा। भगवान् ने हमें हृदय दिया कि उनसे प्रेम करें। बुद्धि दी कि उनके विषय में सोचें। 

     आपको एक सूची बनानी चाहिए कि प्रतिदिन आप कितनी देर अपने और अपने परिवार के लिए काम करने में लगाते हैं ? कितना समय समाज तथा दूसरों को देते हैं तथा कितना समय ईश्वर के लिए लगाते हैं ? यदि आठ घण्टे अपने परिवार के लिए लगाते हैं तो दो घण्टे समाज लिए तथा दो घण्टे  ईश्वर के लिए भी लगाइये। सारा जीवन स्वार्थ के लिए ही लग जाये, यह कैसा जीवन है ?

(क्रमशः)

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‘संन्यास क्या है ?’

    देखो, बुरा समझ करके सम्बन्ध-त्याग करना संन्यास का धर्म-पक्ष है। अच्छाई को भगवदर्पित करना उपासना-पक्ष है। सबसे सम्बन्ध-रहित होना योग-पक्ष है। ‘यह मठ मेरा है’, ‘यह चेला मेरा है’, यह बैंक-बैलेंस मेरा है’- इसका नाम संन्यास नहीं है। किसी भी स्थान, व्यक्ति, वस्तु से अपना सम्बन्ध न मानना संन्यास की उच्चकोटि की अवस्था है। जो सम्बन्ध-त्याग मनमाना होता है, वह टिकाऊ नहीं होता है। विवेक और शास्त्रादेश दोनों चाहिए। कभी-कभी हमारा विवेक हमको गलत रास्ते पर ले जाता है, क्योंकि हमारी बुद्धि में वासना मिली रहती है। अतः शास्त्रादेश के तराजू पर अपने विवेक को तौल लेना चाहिए कि हमारा विवेक हमको ठीक रास्ते पर ले जा रहा है कि नहीं ! शास्त्र के तराजू पर विवेक की समीक्षा करनी चाहिए। अब जो सरकारी कानून बनते हैं, उनको मूलभूत संविधान के न्याय पर जाँचना पड़ता है। आज राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री प्रधान नहीं है। कोई संसद-सदस्य या सरकारी अधिकारी प्रधान नहीं है। सबके सिर पर संविधान बैठा हुआ है।  जो भी सरकारी अध्यादेश जारी होता है, उसकी जाँच-पड़ताल होती है कि वह संविधान के अनुकूल है या प्रतिकूल।  भाई मेरे ! वेद के आधार पर जो संविधान है, वह सत्य है, शाश्वत है, यथार्थ प्रमाण है। अतः वेद-शास्त्रादेशानुसार अपने विवेक की समीक्षा करनी चाहिए। शास्त्रसम्मत  विवेकयुक्त-बुद्धि के द्वारा समस्त दृश्य-प्रपञ्च के सम्बन्ध से रहित होकर अपने असङ्ग आत्मस्वरूप में अवस्थित होना ही संन्यास है। 

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ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (6)

     ‘मद्रचनानुचिन्तया’ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जिसमें भगवान् की दया, करुणा, वात्सल्य न हो। मनुष्य की बुद्धि दूसरी ओर लगी रहती है, अतः इस लीला में भगवान् की कृपा समझ में नहीं आती। कभी-कभी किसी से वियोग होने में लाभ होता है। कभी पैसा खोने में भी लाभ होता है। कभी-कभी किसी के मरने में भी लाभ होता है। संन्यासी होना त्यागमय जीवन-अकेला जीवन बिताना, इसमें भी भगवान् की कृपा है। 

     एकबार मैं घर से भागकर चित्रकूट जा रहा था। मार्ग में एक परिचित मिले। बोले- ‘अकेले जा रहे हो या कोई साथ है?’

     मैंने कहा – ‘मैं हूँ और मेरा भगवान् है।’ जब दूसरे साथ होते हैं, तब भगवान् का पता नहीं लगता। हम अकेले होते हैं तब भगवान् का पता चलता है कि वह हमारी कैसे सहायता करता है। मुझे ऐसे स्थान पर रोटी मिली है, जहाँ रोटी मिलने की कोई आशा नहीं थी। भूखे थे तो मार्ग में चलते-चलते किसी ने बुलाकर खिला दिया। जिसने आपको मुख दिया, शरीर दिया, पेट दिया, उसी ने रोटी दी है। आपकी एक-एक चेष्टा भगवान् की दृष्टि में है। जीवन में जो भी घटना घटे, उसमें  भगवान् का हाथ-भगवान् की करुणा देखो-

तत्तेsनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम्। 

हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते  जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्।।

     भगवान् की कृपा को भली प्रकार देखता हुआ, अपने शुभाशुभ कर्म फल को भोगते हुए, हृदय, वाणी, शरीर से जो भगवान् के सम्मुख नत रहता है, मुक्तिपद का वह उत्तराधिकारी  है। 

                                                                                                                               (क्रमशः)

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ईश्वर का चिन्तन कैसे करें ? (5)

     संस्कृत में एक ग्रन्थ है – ‘सुश्लोकलाघवम्’, उसके ग्रंथकर्ता से किसी ने पूछा- ‘आम्र  इतना मीठा क्यों है ?’ ग्रन्थकर्ता बोले- ‘सोsयं रामपदप्रसङ्ग-महिमा लोके समुज्जृम्भते।’ – यह ‘आम्र’ नाम में जो ‘राम’ नाम के अक्षर ‘आ म र’ ‘र आ म’ हैं,इनके आने की महिमा है।’

     मेघ देख कर आपको ‘मेघश्याम’ और कमल देखकर ‘कमललोचन’ का स्मरण होना चाहिए। एक बौद्ध ग्रन्थ में एक प्रश्न उठाया है- ‘पशु में भी मन होता है और मनुष्य में भी मन होता है। जब ‘मनायतन’ दोनों में है, तब दोनों के शरीर में एवं मन में अंतर क्यों है ?’ मन में तीन बातें होती हैं द्वेष,लोभ और मोह। जो इनको कम नहीं करता, उसका मन दुर्बल एवं चञ्चल हो जाता है। उसका मन निपुण भी नहीं होता। लोभी, मोही, द्वेषी लोग बेईमान, पक्षपाती और निष्ठुर होते हैं। उनमें स्वयं को रोकने की शक्ति नहीं होती। वह एक स्थान पर टिक नहीं सकता। उसमें सूक्ष्म विचारों का उदय नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य अगले जन्म में पशु होगा; क्योंकि पशु के लिए मन को रोकना आवश्यक नहीं। जहाँ आहार दीखा, टूट पड़े। क्रोध आ गया, लड़ पड़े। चित्त में लोभ, द्वेष मोह की प्रधानता से ही तो वर्तमान जीवन में भी मनुष्य पशु-तुल्य ही है।  जो लोभ, मोह, द्वेष को रोकते हैं, उनका मन सबल बनता है। वह स्थिर तथा परमार्थ-विचार में पटु हो जाता है। जिसके मन में लोभ, मोह, द्वेष अधिक है, वह ईश्वर का भक्त नहीं है। मनुष्य जब अलोभ, अमोह, अद्वेष का अभ्यास करता है, तब उसके मन में आत्मबल,एकाग्रता तथा वस्तु को समझने का सामर्थ्य आता है। हम मानवता से पशुता की ओर जा रहे हैं। मन पशु बन चुका तो बाहरी देह मनुष्य बना कबतक घूमेगा ? आप वस्तुतः मनुष्य बनना चाहते हैं तो द्वेष, मोह, लोभ छोड़कर मनको ईश्वर के चिन्तन में लगाइये। इससे मन एकाग्र, बलवान्  तथा विचार-समर्थ होगा। 

                                                                                                                                 (क्रमशः)

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