एक बहिन कार दुर्घटना में घायल हो गयी। उसके शरीर की तीन जगह से हड्डियाँ टूट गयी थीं। सारा शरीर पट्टियों से बँधा था। उसके पति, दो बच्चे और नौकर भी मर गए थे, केवल गोद का शिशु बचा था। एक दिन मैं उसे देखने मथुरा गया। उसके समीप बैठे एक सज्जन ने पूछा – ‘तुमने तो सत्सङ्ग बहुत किया है, फिर यह कष्ट क्यों मिला ?’ मैं तो चुप रहा; परन्तु वह लड़की बोली -‘सत्संग का फल यह नहीं है कि जीवन में कष्ट न आयें। और वे आते हैं; परन्तु हमारा उनसे तादात्म्य नहीं होता, उनसे हमें विक्षेप नहीं होता। वे आगमपायी हैं,इसलिए हम दुःख में,पीड़ा में भी शान्त हैं।’ सुनकर वे सज्जन गद्गद हो गए।
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अरे अमृत ! क्यों डरे मृत्युभय से
मृत्युंजय- शरण ग्रहण कर।
इससे होगा क्या, मैं-मति की मृत्यु
प्रथम क्षण, इसे वरण कर।
मैं अपने को क्या भूला या क्या जाना यह किसे सुनाऊँ ?
भूला अपनी मस्ती में फिर जाना तो क्या ख़ुशी मनाऊँ ?
भले भूल जाऊँ या जानूँ पर मैं तो ज्यों-का-त्योंही हूँ।
मृत्यु-अमृत के अनृत सन्धि-कौशल का कारीगर यों ही हूँ।