श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं-भक्तों के वश में भगवान् हैं। भक्तों में भी श्रीब्रजेश्वरी के तो सर्वथा ही अधीन हैं। अपार परवशता धारण किये हुये हैं। मूल में ‘विमुक्ति’ शब्द का अर्थ है- विशिष्ट मुक्ति = प्रेम। उसे देने वाले हैं श्री कृष्ण। कृष्ण से यशोदा को जो प्रसाद प्राप्त हुआ वह ब्रह्मा शिव लक्ष्मी को भी नहीं मिला। नकार और क्रियापद की तीन बार आवृत्ति कीजिए ,अतिशय अप्राप्त है – यह अर्थ है। दूसरा अर्थ इस प्रकार है ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी को प्रसाद नहीं मिला, ऐसा नहीं, मिला तो सही परन्तु जो प्रसाद गोपी को मिला, वह उन्हें नहीं मिला। ब्रह्मा और शिव दास हैं उनसे श्रेष्ठ लक्ष्मी हैं, वक्षःस्थल पर स्थित प्रेमवती पत्नी। जो प्रसाद उन्हें नहीं मिला वह प्रसाद यशोदा को कैसे मिला? क्योंकि वे तो पहले वसुपत्नी धरा थीं। ब्रह्मा को प्रसाद न मिले और वे जिसको वर दें उसे मिल जाय- ऐसा कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा ब्रजरज के प्रेमी हैं। इस उक्ति-युक्ति से सिद्ध होता है कि नन्द-यशोदा नित्य सिद्ध हैं।
भागवत-सिद्धान्त है कि भगवत्प्रेम ही सब पुरुषार्थों का शिरोमणि है। भक्त नित्यसिद्ध होंगे तो उनमें प्रेम भाव नित्य प्रतिष्ठित होगा, अन्यथा अनित्य हो जायेगा। भक्तों में गोकुलवासी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे वात्सल्य, सख्य आदि भाव से प्रेम करते हैं। उनके रागानुगामी भक्तों को ही श्रीकृष्ण सुलभ हैं। देहाभिमानी कर्मी, देहाध्यास रहित ज्ञानी और भगवान् के ही अवतार ब्रह्मा-शंकर तथा स्वरुप-शक्तिरूपा लक्ष्मी-ये भगवान् के आत्मभूत ही हैं, तथापि उनके लिए ये सुलभ नहीं हैं। ब्रह्मा, शंकर आदि को अपने-अपने लोक में रहना पड़ता है, लक्ष्मी को भी। वे ब्रजरस का आस्वादन कैसे कर सकते हैं? ब्रजवासियों की अनुगति भी उनके लिए अप्राप्य है।
सिद्धान्तप्रदीपकार का अभिमत है कि भक्ति मुक्ति से भी दुर्लभ है- यह इस प्रसंग में कहा गया है। भक्ति-सम्बन्ध-वर्जित धर्म, योग, ज्ञान भगवत्प्राप्ति के साधन नहीं हैं। भक्ति ही एकमात्र भगवत्प्राप्ति का साधन है।
भक्तिरसायनकार श्रीहरिसूरि कहते हैं कि भगवान् जिन्हें बाल लीला का सुख देते हैं उन्हें ऐश्वर्य का सुख नहीं और जिन्हें ऐश्वर्य का सुख देते हैं उन्हें बाल लीला का सुख नहीं। परन्तु अपने श्रेष्ठ भक्तों को वे दोनों का ही सुख देते हैं। बन्धन न होने से ऐश्वर्यसुख है और होने से बाललीला-सुख। यशोदा को दोनों प्राप्त हुए।
येषां बालतया सुखोदयकरस्तेषां न षाड्गुण्यतो
येषां तादृशरूपतश्च सुखदस्तेषां न बालत्वतः।
सच्चिद्रूपतया च बालकतया निःसीमसौख्यप्रद-
स्तेषामेव सुभक्तिमन्त इह येऽत्रो दाहृतिर्गोपिका।।
उलूखलबन्धन-लीला भृत्यवश्यता, प्रेम-परवशता, वात्सल्य-स्नेह का अनुपम उदहारण है। भगवान् में कितना अनुग्रह है और माता में कितना प्रेम है – इन दोनों का स्पष्ट दर्शन होता है इस लीला में।
इसमें सन्देह नहीं कि यह लीला भावुक भक्तों को लीन-तन्मय कर लेती हैं अपने में। प्रेम-भक्ति के लिए उन्मुख करती है। इस प्रसंग में यह उल्लेख करके कि भगवान् का बन्धन भी दूसरों की मुक्ति का साधन है जैसे नलकूबर-मणिग्रीव का उद्धार, हरिसूरि के भक्ति रसायन स्थित एक श्लोक का रसास्वादन करते हुए इस निबन्ध को समाप्त करते हैं –
अन्य एव मम बन्धको भवत्यन्य एव मम मोचकोऽपि च।
न स्वतोऽस्ति मम बन्धनं न वा मुक्तिरित्यकृत स्फुटार्थकम्।।
भगवान् श्री कृष्ण अपने मन में विचार कर रहे हैं कि दूसरा कोई (जैसा माता) मुझे बन्धन में डाल देता है, बद्ध समझ लेता है और दूसरा ही कोई (जैसे पिता नन्द ) मुझे मुक्त कर देता है अर्थात् मुक्त के रूप में साक्षात्कार कर लेता है। मेरे वास्तविक स्वरुप में न बन्धन है और न तो मुक्ति।
श्री हरिः