बड़े सौभाग्य की बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी हमलोग मनाते हैं। हृदय में तो हमेशा अष्टमी मनती है भला ! हर समय वृत्ति में आरूढ़ होकर चेतन अविद्या को दूर करता है। अच्छा, तत्त्वमस्यादि महावाक्य जन्य वृत्ति अज्ञान को दूर करती है कि वृत्त्यारूढ़ चेतन अज्ञान को दूर करता है ? अज्ञान निवर्तकत्व वृत्ति में तब तक आवेगा ही नहीं जब तक वृत्ति में चेतन आरूढ़ होगा नहीं। जैसे हाथ के द्वारा क्रिया कब होती है ? जब आरूढ़ चेतन हाथ में होता है। अधिष्ठान-चेतन, प्रकाशक चेतन,सामान्य चेतन तो मुर्दे के हाथ में भी होता है। परन्तु, वहाँ हाथ में क्रिया करने की शक्ति नहीं होती है। इसी प्रकार अधिष्ठान चेतन , स्वयं प्रकाश चेतन में अविद्या की निवृत्ति का सामर्थ्य नहीं होता है। अविद्या की निवृत्ति का सामर्थ्य तब होता है, जब वृत्ति में चेतन आरूढ़ होता है। इसलिए वृत्ति की उपाधि से चेतन में ही अविद्या का निवर्तकत्व है, वृत्ति में अविद्या का निवर्तकत्व नहीं है। वृत्ति तो स्वयं अविद्या का कार्य है। इसलिए वह अपने कारण को निवृत्त करने में समर्थ नहीं होती है।
तो नारायण, जो लोग यह मानते हैं कि वृत्त्यारूढ़ होकर चेतन अविद्या को निवृत्त करता है, उनको यह बात जाननी चाहिए कि हृदयारूढ़ होकर परमात्मा अभिनिवेश को निवृत्त करता है, हृदयारूढ़ होकर परमात्मा राग-द्वेष को निवृत्त करता है, हृदयारूढ़ होकर परमात्मा अस्मिता को निवृत्त करता है और वृत्यारूढ़ होकर अविद्या को निवृत्त करता है। यही तो उपासना का रहस्य है।
तो जो आज हम लोग जन्माष्टमी मना रहे हैं हम सब लोगों के हृदय में श्री कृष्ण का अवतार होवे। हमारे जीवन में जो दुश्चरित्रता है, वह दूर होवे। जो देह की मृत्यु का भय है, वह दूर होवे। जो हमारे अन्दर ज्ञानी-अज्ञानी पने का अभिमान है, सो भी दूर होवे। जब हृदय में श्रीकृष्णावतार होता है तब यह दूर होता है। मानने की बात जुदा है और समझने की बात जुदा है। अगर आप श्रीकृष्णावतार को समझना चाहते हैं तो आज जन्माष्टमी है, अपने हृदय को श्रद्धा से थोड़ा झुकाकर, अभिमान से थोड़ा मुक्त करके श्रीकृष्णतत्त्व को समझने की चेष्टा कीजिये। और, इसीमें जब आप चेष्टा करेंगे तो आपके हृदय में सच्चिदानंद रूप कृष्णावतार होगा और सम्पूर्ण दोष-दुर्गुणों को मिटावेगा।
