‘व्यावहारिकता और मानसिकता ‘

                                        हम यह जो जाग्रत् अवस्था देख रहे हैं ,यह हमारा मन ही देख रहा है। रास्ता पार कर रहे हों और मन दूसरी जगह हो ,तो कितने मील चले, इसका पता नहीं चलता। मन दूसरी जगह हो तो कितने घण्टे बीत गये ,इसका पता नहीं चलता। मन दूसरी जगह हो तो क्या -क्या खा लिया और किन -किन से मिल लिया ,इसका पता नहीं चलता। मानें हमें यह जाग्रत् -व्यवहार में जो वस्तुओं का पता चलता है ,सुख और दुःख होता है ;एक हमारा मित्र हो और ख़्याल बन जाये कि ‘यह हमारा शत्रु है ‘;एक हमारा शत्रु हो और ख़्याल बन जाये कि ‘यह हमारा मित्र है ‘तो शत्रु को देखकर दुःख होता है और मित्र को देखकर सुख होता है -दोनों मानसिक हैं।
             नारायण ,इस रहस्य को संसार के जीवन में जो कोई समझ ले तो वह कभी दुःखी नहीं होगा। क्या रहस्य है ?हमको यह जो सुख -दुःख होता है ,जितना भी होता है ,जहाँ भी होता है ,जब होता है ,इस सुख -दुःख का जो रसायन बनता है ,वह हृदय में बनता है। बाहर की चीज़ को निमित्त तो हम बना लेते हैं। हम ही कहते हैं कि -‘आ बैल ,मुझे मार। ‘
                  जिसके मिलने से हम सुखी होते हैं ,संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं कि उसी के मिलने से दुःखी हो जाते हैं। और कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन के मिलने से हम दुःखी होते हैं संसार में ,उन्हीं के मिलने से कई लोग सुखी हो जाते हैं। इसका मतलब हुआ कि चीज़ में हमने जो सुख -दुःख डाल रखा है ,वह अपनी वासना के अनुसार डाल रखा है। अपनी भावना के अनुसार डाल रखा है। यदि हम अपनी भावना को परिष्कृत कर लें ,संस्कृत कर लें ,शुद्ध कर लें ,तो दुनिया में जितना सुख -दुःख हमको भोगना पड़ता है ,उतना नहीं भोगना पड़े। दुःख तो हम बना -बनाकर भोगते हैं। 
 ‘ प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत् ‘ 
              इसने हमको हाथ क्यों नहीं जोड़ा ?दुःख हो गया। अरे भाई !हाथ जोड़ना उसका काम है। ठीक समझता तो जोड़ता ;ठीक नहीं समझा सो नहीं जोड़ा। अब इसकी फ़िकर तुम काहे को करते हो ?’नहीं ,वह हमारा बेटा है। हमारे सामने हाथ नहीं जोड़ता ?लो दुःख मोल लिया अपने मन से। 
                                             नारायण कहो ! दुनिया की चीज़ें -यह सोना ,यह चाँदी, यह नोट -सब आते -जाते रहते हैं। दूसरा आदमी जो व्यवहार करता है ,वह अपने भीतर की प्रेरणा से व्यवहार करता है। वह तुम्हारी प्रेरणा से तो व्यवहार करता नहीं है। जब तुम उसके व्यवहार के ठेकेदार बन जाओगे ,पट्टेदार बन जाओगे ,जज बन जाओगे कि यह हमारे कहे अनुसार व्यवहार करे ;इतना ही नहीं ,केवल हमारे कहे अनुसार ही नहीं ,मन में तो हमारे हो और वैसा व्यवहार सामने वाला करे। अब तुम्हारा मन तुम्हारे शरीर में ,उसका मन उसके शरीर में !सो जब तुम्हारे मन के अनुसार उसके शरीर से व्यवहार नहीं होता ,तब तुमको दुःख होता है। तो इस संसार में जो सुख -दुःख का मामला है ,यह समझने लायक है।
                    अपना मन ही हज़ार बार दुःख देता है और अपना मन ही हज़ार बार सुख देता है। अगर हम अपने मन को ठीक समझ लें ,तो चाहे हज़ार आवे ,हज़ार जाये !देखो ,सट्टा खेलने वाले समझते हैं कि यह आना -जाना तो बिलकुल स्वाभाविक है। लाखों के घाटे में और लाखों के मुनाफ़े में उतने दुःखी सुखी नहीं होते ,जितने दुनियादार और लोग दुःखी -सुखी होते हैं। तो अपने मन को ठीक करना।    

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