भगवान् शंकर ने समग्र विश्व का कल्याण करने के लिए अनुग्रह करके विरूपाक्ष नाम से अवतार ग्रहण किया था। दर्शन करने में उनका शरीर सुन्दर और इन्द्रिय-गोलक आकर्षक नहीं थे। अतएव उनका नाम विरूपाक्षनाथ प्रसिद्ध हुआ। इसका अभिप्राय यह है कि बाहर के शरीर में सुंदरता, मधुरता या आकर्षण न होने पर भी अंग-प्रत्यंग के अंतरंग में उनके रग-रग की रंग-तरंग में, एक निरतिशय महिमा भरपूर थी। बाह्य दृष्टि से वे व्यक्ति थे, परन्तु अंतर्दृष्टि से वे परमेश्वर।
एक बार स्वछन्द विचरण करते हुए विरूपाक्षनाथ देवताओं की राजधानी अमरावती में पहुँच गये। उन्होंने देखा कि सुरपति महेन्द्र अपने मनोविनोद के लिए हाथियों की लड़ाई देख रहे हैं। इन्द्र समझते थे कि हमको कितना ऐश्वर्य, सम्पदा और गौरव प्राप्त है। विरूपाक्ष इन्द्र के सम्मुख आकर खड़े हो गये। इन्द्र ने पूछा- ‘तुम कौन हो ?’ विरूपाक्ष- ‘मैं महेश्वर हूँ। मैं परमेश्वर हूँ।’ इन्द्र – ‘तुममें क्या ऐश्वर्य है ?’ विरूपाक्ष- ‘अच्छा देखो।’ उन्होंने बड़े-बड़े दो पर्वत प्रकट कर दिये। वे दोनों परस्पर टकरा रहे थे। एक दूसरे को टक्कर मार रहे थे। कहाँ हाथियों की लड़ाई, कहाँ पर्वतों की। इन्द्र का अभिमान टूट गया। वे विरूपाक्ष की शरण में आये। विधि-पूर्वक दीक्षा ग्रहण की। विरुपाक्ष ने अपने शरणागत शिष्य इन्द्र के प्रति पचास श्लोकों में उपदेश किया। उसी पुस्तक का नाम ‘विरुपाक्ष पञ्चाशिका’ है। प्रथम और अन्तिम दो श्लोकों में उपक्रम, उपसंहार है। एक श्लोक प्रासंगिक है। शेष सब उपदेश रूप हैं। विरूपाक्ष ने इन श्लोकों में अपनी सिद्धि का रहस्य बतलाया है।
इस अल्पकलेवर ग्रन्थ पर श्रीविद्या चक्रवर्ती की टीका है। अभीतक इस ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ है। मूल ग्रन्थ (संस्कृत टीका) वाराणसेय संस्कृत-विश्व-विद्यालय से मुद्रित हुआ है। ग्रन्थ की शैली और प्रक्रिया जिज्ञासुओं के लिए एक नूतन एवं अद्भुत विचारप्रणाली समर्पित करती है। अतएव इस ग्रन्थ का सार संक्षेप प्रस्तुत किया जाता है।
(क्रमशः )