परम प्रिय
सप्रेम नारायणस्मरण !
यदि देहगत व्यष्टि पञ्चभूत हो, समष्टि पञ्चभूत से एक करके देखा जाय तो एक जीववाद की प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है। ‘माण्डूक्योपनिषद्’ में जागृत स्थान में जो विश्व या वैश्वानर आत्मा है वह सप्ताङ्ग है। सप्ताङ्ग का अर्थ होता है – पृथिवी,जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा और सूर्य। तुम वैश्वानर हो और पूर्वोक्त सात पदार्थ तुम्हारे शरीर में। यह जो एक देह है, जिसको तुम ‘मैं’ ‘मैं’ करते फिरते हो, यह तो देहाभास है। यह भिन्न-भिन्न शरीर न पञ्चभूत हैं, न उनके कार्य। ये न परिणाम हैं, न विकार हैं, न आरम्भ हैं। पञ्चभूत में कल्पित आकृतियाँ हैं। कल्पना-दशा में ही इनका भान होता है और कल्पनारहित दशा में इनका भान नहीं होता। अतः यह शरीर आत्मा नहीं है। सात अङ्गों वाला ही जाग्रतावस्था में आत्मा है। मैं देह नहीं हूँ, विश्वात्मा हूँ, वैश्वानर हूँ। यह अलग-अलग दीख पड़ने वाले शरीर मुझमें आभासमात्र हैं। इस निश्चय में देहगत भेद को कार्य नहीं माना जाता।
