परम प्रिय,
सत् माने अजर अमर एकरस परमात्मा। चित् माने स्वयंप्रकाश ज्ञान, जो बिना किसी आधार के, बिना किसी माध्यम के बिना किसी विषय के, हर हालत में जगमग-जगमग झिलमिलाता रहे। सत् और चित् में न मौत है, न बेवकूफी है, न वियोग है, न बेवफाई है। फिर दुःख काहेका? जो सत् व चित् में संतुष्ट नहीं है, उसे कुछ असत् चाहिए; उसे कुछ जड़ता चाहिए; वह कभी रोयेगा, कभी हंसेगा; कभी मुहब्बत में मुब्तिला, कभी नफरत से बेचैन। उसे वस्तु चाहिए, भोग चाहिए, हलचल चाहिए, परिवर्तन चाहिए। वह अपने में संतुष्ट नहीं है। उसे आनन्द का एकाध खण्ड, टुकड़ा कभी-कभी मिल जाता है। सच पूछो तो अखण्ड आनन्द मैं ही हूँ। वह तो तुम्हें मिला मिलाया ही है। ‘मुझको क्या तू ढूंढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास हूँ।’
शेष भगवत्स्मरण
