परम प्रेमास्पद
शुभाशीर्वाद
तुम अपने मन भावों को भाषा देने में निपुण हो। प्रश्न यह है कि मन में कई आकृतियाँ चल-चित्र-सी उभरती-मिटती हैं, कोई अभिव्यक्ति स्थिरता ग्रहण नहीं करती। यह ठीक है। ऐसा ही होता है।
गङ्गा बह रही थी। तरङ्ग के बाद तरङ्ग। हर-हर-हर-हर। मैं तटस्थ था। मैं केवल देख रहा था। तरङ्गों के बहने-बदलने से, उनकी तीव्र एवं मधुर ध्वनि से, द्रुत तथा विलम्बित गति से मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। मैं तटस्थ, कूटस्थ, मैं केवल द्रष्टा; साक्षी, निष्पन्द, निःसंग, निस्तरंग देख रहा था, और केवल देख रहा था। स्थिरता आकृतियों को नहीं देना है। उन्हें कितनी भी स्थिरता दी जाये, थोड़ी देर के बाद टूट जायेगी। वैसे न भी टूटे, तो भी नींद मन की सभी आकृतियों को तोड़ देती है। ऐसी अवस्था में इसे अन्तर्यामी की ही एक लीला समझनी चाहिए कि आकृतियाँ टूटती-छूटती-फूटती रहती हैं। अन्तर्यामी खेल रचता रहता है। साक्षी पहले खेल देखता है और उन आकृतियों से अन्तरङ्ग, किन्तु स्वयं से बहिरङ्ग अंतर्यामी को देखता रहता है। तुम स्थिर साक्षी हो यह सत्य है। अन्तर्यामी को अपनी दृष्टि से स्थिर बना सकते हो यह भी सत्य है, परन्तु चलचित्र को स्थिर बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है उसकी उपेक्षा कर दो अथवा उसके खेल और खिलाड़ी का आनन्द लो !सटाओ मत, हटाओ मत। दोनों अवस्थाओं को अपने साथ पटालो। जीवन कड़वे से शत्रुता और मीठे से मित्रता करने के लिए नहीं है। दोनों का स्वाद लेने के लिए है। वे दोनों ही एक दूसरे के स्वाद के पूरक हैं।
यदि तुम्हें यही ठीक लगता हो कि कोई आकृति स्थिर कर दी जाय तो उसका नाम रखो- कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण। यह नाम तुम्हारे अन्तरतम में गुप्त-लुप्त-सुप्त प्रियता को मूर्ति देकर अभिव्यक्त कर देगा और तुम देखोगी कि उस मूर्ति की चलता भी तुम्हें प्रिय लगेगी। जिससे प्रेम होता है उसकी चञ्चलता-छेड़छाड़ भी प्रिय लगती है। चितवन चञ्चल, मुस्कान चञ्चल, अंग-प्रत्यंग तरंगायित।जैसे सिनेमा का चित्र चंचल होने पर भी एक लगता है, वैसे ही अन्तर्देश के सूक्ष्मतम प्रदेश में वह मधुर मूर्ति भी हँसकर, नाचकर, गाकर स्पंदित रहेगी; परन्तु तुम्हें एक और ज्यों-की-त्यों जान पड़ेगी। इस अवस्था में अन्तर और बाहर का भेद मिट जाता है। आह्लाद के चरम प्रकाश में बाहर-भीतर और अपने पराये का भेद नहीं होता। वह तुम्हारी आत्मा ही है जो प्रियता की अभिव्यक्ति में मुस्करा रही है और वह भी तुम्हीं हो जो उसको देख-देखकर तृप्त हो रहे हो।
शेष भगवत्स्मरण
