मैंने श्रीउड़ियाबाबा जी महाराज से प्रश्न किया- ‘ब्रह्मज्ञान के अनन्तर जीवन में एक अद्भुत मस्ती का आना अनिवार्य है क्या ?’
उन्होंने तुरन्त प्रतिप्रश्न किया- ‘मस्ती जीवधर्म है या ब्रह्मधर्म ?’ अर्थात् ब्रह्मदृष्टि से मस्ती-बेमस्ती का कोई अर्थ नहीं है। जीवदृष्टि से जिसका जैसा अभ्यास-संस्कार है, उसकी अनुकूलता-प्रतिकूलता से मस्ती-बेमस्ती होती है। अभ्यास और तपस्या के द्वारा ज्ञानी की रहनी ऐसी हो जाती है- बेख़्वाहिश-बेपरवाह।
जैसे झींगुर और मच्छर अपनी प्रकृति के अनुसार बोलते और चेष्टा करते रहते हैं, एक मनुष्य उनकी ओर ध्यान नहीं देता,वैसे ही ज्ञानी पुरुष निर्भय और निर्द्वन्द्व रहते हैं।
