संस्कृत में एक ग्रन्थ है – ‘सुश्लोकलाघवम्’, उसके ग्रंथकर्ता से किसी ने पूछा- ‘आम्र इतना मीठा क्यों है ?’ ग्रन्थकर्ता बोले- ‘सोsयं रामपदप्रसङ्ग-महिमा लोके समुज्जृम्भते।’ – यह ‘आम्र’ नाम में जो ‘राम’ नाम के अक्षर ‘आ म र’ ‘र आ म’ हैं,इनके आने की महिमा है।’
मेघ देख कर आपको ‘मेघश्याम’ और कमल देखकर ‘कमललोचन’ का स्मरण होना चाहिए। एक बौद्ध ग्रन्थ में एक प्रश्न उठाया है- ‘पशु में भी मन होता है और मनुष्य में भी मन होता है। जब ‘मनायतन’ दोनों में है, तब दोनों के शरीर में एवं मन में अंतर क्यों है ?’ मन में तीन बातें होती हैं द्वेष,लोभ और मोह। जो इनको कम नहीं करता, उसका मन दुर्बल एवं चञ्चल हो जाता है। उसका मन निपुण भी नहीं होता। लोभी, मोही, द्वेषी लोग बेईमान, पक्षपाती और निष्ठुर होते हैं। उनमें स्वयं को रोकने की शक्ति नहीं होती। वह एक स्थान पर टिक नहीं सकता। उसमें सूक्ष्म विचारों का उदय नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य अगले जन्म में पशु होगा; क्योंकि पशु के लिए मन को रोकना आवश्यक नहीं। जहाँ आहार दीखा, टूट पड़े। क्रोध आ गया, लड़ पड़े। चित्त में लोभ, द्वेष मोह की प्रधानता से ही तो वर्तमान जीवन में भी मनुष्य पशु-तुल्य ही है। जो लोभ, मोह, द्वेष को रोकते हैं, उनका मन सबल बनता है। वह स्थिर तथा परमार्थ-विचार में पटु हो जाता है। जिसके मन में लोभ, मोह, द्वेष अधिक है, वह ईश्वर का भक्त नहीं है। मनुष्य जब अलोभ, अमोह, अद्वेष का अभ्यास करता है, तब उसके मन में आत्मबल,एकाग्रता तथा वस्तु को समझने का सामर्थ्य आता है। हम मानवता से पशुता की ओर जा रहे हैं। मन पशु बन चुका तो बाहरी देह मनुष्य बना कबतक घूमेगा ? आप वस्तुतः मनुष्य बनना चाहते हैं तो द्वेष, मोह, लोभ छोड़कर मनको ईश्वर के चिन्तन में लगाइये। इससे मन एकाग्र, बलवान् तथा विचार-समर्थ होगा।
(क्रमशः)