‘भगवन् ! कई बार अपमान का बड़ा कटु अनुभव होता है, लोग तरह-तरह से अपमान कर देते हैं, क्या करूँ ?’
‘नारायण ! जब तुम्हें अपमान का अनुभव होता है, तब तुम ऐसी भूमि में उतर आये रहते हो, जहाँ अपमान तुम्हारा स्पर्श कर सकता है। तुम ऐसी भूमि में – ऐसी स्थिति में रहा करो, जहाँ अपमान की पहुँच ही नहीं है। यदि तुम अपने भगवान् को भूल कर, आत्मा को भूल कर अहंकार या ममकार के अधीन हो जाते हो तो अपमान अवश्य सताएगा, अन्यथा नहीं। इतना ही नहीं, अपमान तो तुम्हारी आत्म-ज्योति को जाग्रत् करने वाला है। तुम्हारी भगवद्-विस्मृति को नष्ट करके स्मृति को ताजी बनाने वाला है। अपमान क्षोभ का नहीं, प्रसाद का जनक है। अपमान होते ही प्रसन्नता से खिल उठना चाहिए कि मेरी स्मृति ताज़ी करने के लिए साक्षात् भगवान् के दूत, नहीं-नहीं स्वयं भगवान् आये हैं। महान् सौभाग्य है- जीवन में यह अपूर्व अवसर है।’