- यह संसार एक चित्रशाला है, आर्ट गैलरी।
- अनेक प्रकार के चित्र हैं इसमें – शान्त, करुण, अद्-भुत वीर, शृङ्गाररस प्रधान।
- चित्र बड़े सुन्दर हैं; परन्तु नाम और रूप के अतिरिक्त कुछ नहीं।
- चित्र-भेद के अनुसार मन में भिन्न-भिन्न भाव और रस का उद्दीपन भी होता है, फलतः हम उन्हें देखकर सुखी या दुःखी होते हैं।
- चित्रशाला के चित्रोंका स्पर्श वर्जित है; हम छूना चाहें तो भले छू लें; परन्तु नाम रूप के सिवा वहाँ कुछ है नहीं। उन्हें छूने पर मन की शान्त, करुण आदि स्थितियाँ होकर हम विषाद या आनन्द में भर सकते हैं।
- चित्रशाला से बाहर आने पर, चित्र के सौन्दर्य पर उसके कलाकौशल पर उसके निर्माता पर दृष्टि जाती है उसकी हम प्रशंसा करते हैं। वस्तुतः आनन्द चित्र में नहीं, उसके कलाकौशल से हुआ और यह कौशल उसके चितेरे का है।
- इस सृष्टि का चितेरा- चित्रकार- कारीगर परमात्मा है। उसके द्वारा सृष्ट हम प्रत्येक रस का उसकी पूर्णता का अनुभव करते हैं, और उसकी प्रशंसा करते हैं, करनी ही चाहिये।
- वस्तु-तस्तु वह चित्रकार मैं ही हूँ, परमानन्द का समुद्र।
- चित्र भी मैं ही हूँ, चित्रकार भी मैं ही हूँ और उसके भिन्न-भिन्न रस (शान्त आदि ) भी मैं ही हूँ। रस, रस्य और रसिक भी मैं ही हूँ। अन्य की सत्ता ही नहीं है। तब त्रिपुटी मिट गयी, समाधि लग गई। वस्तुतः समाधि भी आत्मा का विलास-मात्र है। अपने अतिरिक्त कोई चीज़ न थी, न है और न कल्पना की जा सकती है। सच्चिदानन्द घन।